संध्या
तुम संध्या ,मै सूरज ढलता ,
तुम पर जी भर प्यार लुटाता
तुम्हारे कोमल कपोल पर ,
लाज भरी मै लाली लाता
फिर उतार तुम्हारे तन से ,
तारों भरी तुम्हारी चूनर
फैला देता आसमान में ,
और तुम्हे निज बाहों में भर
क्षितिज सेज पर मै ले जाता,
रत होते हम अभिसार में
हम तुम दोनों खो जाते है,
एक दूजे संग मधुर प्यार में
प्राची आती ,हमें जगाती,
चूनर ओढ़ ,सिमिट तुम जाती
मै दिन भर तपता रहता हूँ,
याद तुम्हारी ,बहुत सताती
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
‘को’ नहीं ‘की’
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‘को’ नहीं ‘की’ हम भगवान ‘को’ मानते हैं भगवान ‘की’ नहीं मानते !भगवान ‘को’
मानते हैं पर हम चलाते अपनी हैं भगवान ‘की’ मानने से निष्काम कर्म करना
है उनके कर्...
5 घंटे पहले
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतीकरण,होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रेम गीत ...
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें।।