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शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

खुद का धंधा 


तुमने बी ए ,एम् ए ,करके ,पायी पगार बस कुछ हज़ार 
दफ्तर जाते हो रोज रोज , और साहेब  डाटते  बार  बार 
और गला सूखता नहीं कभी ,यस सर ,यस सर ,यस सर कहते 
मजबूरी में तुम सब ये सहते ,और सदा टेंशन में रहते 
और साथी एक तुम्हारा था ,जो था दसवीं में फ़ैल किया 
उसने एक चाट पकोड़ी का ,ठेला बाज़ार में लगा लिया 
था स्वाद हाथ में कुछ उसके ,थोड़ी कुछ उसकी मेहनत थी 
लगने लग गयी भीड़ उसके ठेले पर उसकी किस्मत थी 
प्रॉफिट भी  दूना  तिगना था ,और धंधा सभी केश से था 
उसकी कमाई लाखों में थी और रहता बड़े ऐश से था 
अब वो निज मरजी  का मालिक ,है उसके सात आठ नौकर 
बढ़िया सी कोठी बनवा ली ,उसने है मेट्रिक फ़ैल होकर 
और तुम लेने दो रूम फ्लैट ,बैंकों के काट रहे चक्कर 
छोटा मोटा धंधा खुद का ,है सदा नौकरी से बेहतर 
सरकारी सर्विस मिल जाए ,कुछ लोग पड़े इस चक्कर में 
क्यों खुद का काम नहीं करते ,बैठे बेकार रहे घर में 
अंदर के 'इंटरप्रेनर 'को ,एक बार जगा कर तो देखो 
छोटा मोटा धंधा कोई ,एक बार लगा कर तो देखो 
मेहनत थोड़ी करनी होगी ,तब सुई भाग्य की घूमेगी 
जो आज नहीं तो कल लक्ष्मी ,आ कदम तुम्हारे चूमेंगी 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
तुम भी कुत्ते ,हम भी कुत्ते 


तुम भी कुत्ते हम भी कुत्ते 
आपस में भाई भाई हम ,फिर क्यों होते गुत्थमगुत्थे
तुम भी कुत्ते हम भी कुत्ते 
तुम्हारी गली साफ़ सुधरी ,देखी जब इसकी चमक दमक  
मुझको उत्सुकता खींच लाइ देखूं  कैसी इसकी  रौनक 
देखा अनजान अजनबी को ,तुम सबके सब मिल झपट पड़े 
चिल्लाये मुझ पर भोंक भोंक ,मेरे रस्ते में हुए खड़े 
इस तरह शोर मत करो यार ,मारेंगे लोग हमें जुत्ते 
तुम भी कुत्ते ,हम भी कुत्ते 
तुमको ये डर  था ,मैं आकर ,तुम्हारी सत्ता छीन न लूँ 
जो पड़े रोटियों के टुकड़े ,मैं आकर उनको बीन न लूँ 
भैया मेरा रत्ती भर भी ,ऐसा ना कोई इरादा था 
बस रौनक देख चला आया ,बंदा मैं सीधासादा था 
पर तुमने मुझे नोच डाला ,फाड़े मेरे कपड़े लत्ते 
तुम भी कुत्ते ,हम भी कुत्ते 
तुम भी भोंके ,हम भी भोंके ,जब शोर हुआ ,सबने रोका 
हम रुके नहीं तो डंडे ले ,सबने मिल हमें बहुत  ठोका 
तुम पूंछ दबा ,मिमियाते से ,अपने दड़वे की ओर भगे 
मैं समझ गया ये मृगतृष्णा थी ,दूरी से देखो,तुम्हे ठगे 
डंडे ही मिलते खाने को ,मिल पाते नहीं मालमत्ते 
तुम भी कुत्ते ,हम भी कुत्ते 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
प्रथम प्रेम की यादें 

जिधर जिधर से तुम गुजरी थी इस बगिया में ,
फूल रही है आज वहां की क्यारी क्यारी 
जहां जहां पर मेंहदी वाले  पैर  पड़े थे ,
आज वहां पर उग आयी ,मेंहदी की झाड़ी 
जहां गुलाबी हाथों से तुमने छुवा था ,
वहां गुलाब के फूल खिले है,महक रहे है 
और जहाँ तुम खुश होकर खिलखिला हंसी थी 
आज वहां पर कितने पंछी चहक रहे है 
जहां प्यार से तुमने मुझे दिया था चुंबन ,
वहां भ्र्मर ,कलियों संग करते  अभिसार है 
संग तुम्हारे बीता मेरा एक एक पल पल ,
मेरे जीवन की एक प्यारी यादगार है 
तो क्या हुआ ,आज यदि तुम हो गयी पराई ,
मगर कभी तुमने मुझको समझा था अपना 
मेरे दिल में ,साँसों में ,मेरी आँखों में ,
अब भी बसा हुआ है वो प्यारा सा  सपना 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

मॉडर्न कवि मिलन 

वो आये ,उनका स्वागत कर ,हमने पूछा भाई 
घर का पता ढूढ़ने में कुछ मुश्किल तो ना आई 
उनने झट से मुस्कराकर निज मोबाईल दिखलाया 
बोले 'जी पी एस 'लगा है,'गूगल 'ने पहुँचाया 
हमने पूछा थके हुए हो ,चाय वाय  मँगवाये 
बोले अपने 'वाई फाई 'का ,पहले कोड बताएं 
फिर पास आये ,फोन उठाकर ,खींची सेल्फी झट से 
'पहुंच गए 'लिख 'व्हाट्स एप'पत्नी को भेजा फट से 
हम बोलै साहित्य जगत की ,क्या खबरें है नूतन 
वो बोले मॉडर्न तखल्लुस रखने का अब फैशन 
चंद्रमुखी ने नाम बदल कर ,'फेस बुकी 'कर डाला 
सर्वेश्वर ने नया तखल्लुस 'गूगली 'है रख डाला 
डायरी में कविता लिख कर रखना सबने छोड़ा 
मोबाईल लख ,कविता पढ़ते ,ऐसा नाता जोड़ा 
अपना ब्लॉग बना निज रचना लोग पोस्ट है करते 
पढ़ने वाले दिखा अंगूठा ,लाइक उसको करते 
साहित्यिक पत्रिका बंद सब ,पेपर भी ना छापे 
टी वी वाले ,कविसम्मेलन करते कभी बुलाके 
हास्य कवि ,चुटकुले सुना कर ,है ताली बजवाते 
अब ना बच्चन की मधुशाला ,अब ना नीरज गाते 
कविसम्मेलन में भी देखी  है गुटबाजी छाई 
एक  दूजे की कविता सुन कर ,करते वाही वाही
फिर बोले,छोडो ये किस्से ,तुम कैसे बतलाओ 
ये तो चलता सदा रहेगा ,अब तुम चाय मँगाओ 

मदन मोहन बाहेती ' घोटू ' 
मैं डॉग लवर हूँ 

मैं भी कुत्ते सा भौंका करता अक्सर हूँ 
                             मैं डॉग लवर हूँ 
मैं कुत्ते सा, मालिक आगे पूंछ हिलाता 
रोज रोज ही ,सुबह घूमने  को मैं  जाता 
स्वामिभक्त श्वान सा ,मेरी बात निराली 
मैं भी पूरे घरभर की करता  रखवाली 
झट जग जाता,श्वान सरीखी निद्रा रखता 
मैं हूँ घर में ,कोई अजनबी ,नहीं फटकता 
खड़े कान रहते ,चौकन्ना रहता हरदम 
बंधे गले में, पट्टे से   सामजिक बंधन  
हो जब अपनी गली. स्वयं को शेर समझता 
हड्डी डालो ,खुद का खून ,स्वाद ले चखता 
रोटी कोई डाल दे ,रखता नहीं सबर हूँ 
                              मैं डॉग लवर हूँ 
   
घोटू 
ओरंज कॉउंटी -अपना घर 

एक साथ हम रहें सभी मिल ,भाई भाई 
जैसे सोलह फांक ,संतरे बीच समाई 
ये ओरंज काउंटी है ,ये है अपना घर  
दिन दिन इसे बनाना है अब सबसे बेहतर  

हमे त्यागनी होगी सबको निज हठधर्मी 
बात बात, करना विवाद और गर्मागर्मी 
एक  दूजे के दोष नहीं ,ढूंढें  अच्छाई 
झूंठ न टिकता ,सदा जीतती है सच्चाई 
देना यही संदेशा हमको है अब घर घर  
दिन दिन इसे बनाना है अब सबसे  बेहतर  

अपने 'मैं 'को त्याग जब तलक 'हम 'ना होंगे 
तब तक बैरभाव और झगड़े  कम ना होंगे 
ध्यान सफाई का सबको मिल रखना होगा 
और सुरक्षा की कमियों को ढकना होगा 
हराभरा हो महके अपना प्यारा परिसर 
दिन दिन इसे बनाना है अब सबसे बेहतर 

यहीं कटेगी उमर ,यहीं जीना मरना है 
इसीलिये इस परिसर में खुशियां भरना है 
बच्चे सब मिल खेले कूदे ,नाचे,  गाये 
हंसीखुशी सब मिल ,सारे त्योंहार मनायें 
दिल से दिल मिल ,आपस में हो प्रेम परस्पर 
दिन दिन इसे बनाना है अब सबसे बेहतर 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
औरतों  का जादू 

ना जाने ,सभी औरतों को ,ये कैसा जादू आता है 
जो मर्द किसी की ना सुनता ,बीबी के काबू आता है 

वह थोड़ा पुचकारा करती ,सहला थोड़ा बहलाती है 
फिर इतना काबू कर लेती ,ऊँगली पर उसे नचाती है 
वह इतना खौफजदा रहता , सब रौब दफ़ा हो जाता है 
ये एक बार की बात नहीं ,ये हरेक दफा  हो  जाता  है 
बीबी जब हुकम चलाती है तो हाकिम भी घबराता है 
ना जाने सभी औरतों को ,ये कैसा जादू आता  है 

एजी,ओजी,के चक्कर में ,फौजी हथियार डाल देता 
पत्नी की बात न टाल सके,औरों की बात टाल देता 
जाता है रोज रोज दफ्तर ,मेहनत करता है महीने भर 
अपनी कमाई सारी पगार ,पत्नी हाथों पर देता धर 
नित खर्चे को पत्नी आगे ,वह हाथ अपने फैलाता है 
ना जाने सभी औरतों को ,ये कैसा जादू  आता है 

पत्नी का मूड नहीं बिगड़े ,परवाह उसे सबसे ज्यादा 
पत्नी पसंद के वस्त्र पहन ,पत्नी पसंद खाना खाता 
कंवारेपन का उड़ता पंछी ,पिंजरे में बंद तड़फता है 
गलती से भी वो इधर उधर ,ना ताकझांक कर सकता है 
था कभी शेर ,अब हुआ ढेर ,भीगी बिल्ली बन जाता है 
ना जाने सभी औरतों को ,ये कैसा जादू  आता है  

जो बात जरा सी ना मानी ,तो बस समझो कि मुश्किल है 
ना चाय ,नाश्ता ना खाना ,कुछ भी तो ना पाता मिल है 
वह अश्रुबाण चला कर जब ,आँखों से मोती  बरसाती 
रखने ना देती हाथ तुम्हे ,और चिढ़ा चिढ़ा कर तरसाती 
फिर हार मान बेचारा पति ,उसके चरणों झुक जाता है 
ना जाने सभी औरतों को ,ये कैसा जादू आता  है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  


मंगलवार, 28 अगस्त 2018

दर्द बदलते रहते है 
 

मन माफिक काम बनाने को ,सन्दर्भ बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते  रहते है 

उनके दो पुत्र हुए दोनों, थे अति कुशाग्र और पढ़े लिखे 
अच्छी सी मिली नौकरी तो ,भागे विदेश,घर नहीं  टिके 
है पिता वृद्ध , संतान मगर ,करती ना उनकी देख भाल 
बस यदा कदा ,कर दूरभाष ,वो पूछा करते हालचाल 
उनके मन में यह पीड़ा है ,एक पुत्र नलायक रह जाता 
जो रहता साथ बुढ़ापे में ,और उन्हें सहारा दे   पाता 
अपने जब पास नहीं रहते ,हमदर्द बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है  

उनकी पत्नी सीधी ,कर्मठ ,परिवार निभाने वाली है 
पर उनके मन में पीड़ा है ,वो गौरवर्ण ना ,काली है 
उनके सब मित्रों की पत्नी ,है सुन्दर,गौरी और स्मार्ट 
फैशन की पुतली ,बनीठनी ,बातों का आता उन्हें आर्ट 
पर उनके पति भी पीड़ित है ,लुटते है फैशन के मारे 
पत्नी रसोई तक में घुसे  ,है बहुत दुखी वो  बेचारे 
पत्नी कहती ,वैसा करते ,सब मर्द बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है 

वो सरकारी सेवा में थे ,ऊंचे ओहदे के अफसर थे 
थे कार्य कुशल और रौबीले ,सब करे उनका आदर थे 
थे बहुत अधिक ईमानदार ,रिश्वत से उनको नफरत थी 
ना गलत काम करते कोई ,सच्चाई जिनकी आदत थी 
जब हुए रिटायर ,महीनों तक पेंशन की फ़ाइल गयी अटक
कुछ ले देकर के मुश्किल से ,उनको मिल पाया ,अ पना हक़ 
जब खुद पर गुजरा करती है ,आदर्श बदलते रहते है 
होती है  अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है 

थे  इन्द्रासन पर इंद्रदेव ,मन में न तनिक संतोष उन्हें 
वे  घिरे अप्सराओं से रहते ,कर सोमपान ,ना होंश उन्हें 
उनके मन में यह पीड़ा थी ,है वो की वोही अप्सरायें 
होती ना तृप्त लालसा थी ,नित स्वाद बदलना वो चाहें 
इसलिये तोड़ सब मर्यादा ,हो गए काम के अभिभूत 
धर गौतम भेष,अहिल्या का,छुप कर सतीत्व ,ले लिया लूट 
मन चाहा पाने ,बड़े बड़ों के ,कृत्य बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है 

मदन मोहन बाहेती ' घोटू '

सोमवार, 27 अगस्त 2018

केरल की त्रासदी पर 

देख तड़फता निज बच्चों को ,रोया तू भगवान तो होगा 
तूने इतना दर्द दिया है ,इसका कोई निदान  तो होगा 

तेरा अपना देश कहाता ,सुंदरता थी,हरियाली थी 
गाँव गाँव में समृद्धि थी ,गली गली में खुशहाली थी 
जिसकी एक बाजू सागर की ,लहरें उछल उछल धोती थी 
नारियल,केले और मसाले ,की घर घर  खेती होती थी 
वहां भला क्यों इतना ज्यादा ,अतिवृष्टि कर ,जल बरसाया 
वहां जलप्रलय सा लाकर के ,तूने सितम इस तरह ढाया 
क्या वो तेरे बंदे ना थे ,  क्यों थी  उनसे  यूं नाराजी 
नदियां उमड़ी ,बाढ़ आ गयी ,सभी तरफ छायी बर्बादी 
कीचड़ कीचड़ गाँव हो गए ,सड़क हो गयी टुकड़े टुकड़े 
कितने घर बरबाद  हो गए ,कितने घर में छाये दुखड़े 
कोई की माँ ,कोई बेटा ,कोई डूबा ,कोई बह गया 
कितनो का अरमान संजो कर, बनवाया आशियां ढह गया 
इनकी पीड़ा देख प्रभु तू ,खुद भी परेशान तो होगा 
तूने इतना दर्द दिया है  ,इसका कोई निदान तो होगा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
हम सीधेसादे 'घोटू 'है 

ना तो कुछ लागलगावट है 
ना मन में कोई बनावट  है 
हम है सौ प्रतिशत खरी चीज,
ना हममे कोई मिलावट है
          हम सदा मुस्कराते रहते 
          हँसते  रहते , गाते  रहते 
         जियो और जीने दो सबको ,
         दुनिया को समझाते रहते 
कितना ही वातावरण भले ,
गंदा,दूषित ,दमघोटू  है 
हम सीधेसादे  'घोटू ' है 

ना  ऊधो से लेना  कोई 
ना माधो  का देना कोई 
है हमे पता जो बोयेंगे ,
हम काटेंगे फसलें वो ही 
        इसलिए सभी से मेलजोल 
        बोली में  मिश्री सदा घोल 
        हम सबसे मिलते जुलते है 
        दिल के दरवाजे सभी खोल 
ना  मख्खनबाज ,न चमचे है ,
ना ही चरणों पर लोटू  है 
हम सीधेसादे 'घोटू ' है 

मिल सबसे करते राम राम 
है हमे काम से सिरफ काम 
ना टांग फटे में कोई के ,
ना ताकझांक ना तामझाम 
           हम सीधी राह निकलते है 
           कुछ लोग इसलिए जलते है 
           है मुंह में राम ,बगल में पर ,
           हम छुरी न लेकर चलते है 
अच्छों के लिए बहुत अच्छे ,
खोटो के लिए पर खोटू  है 
हम सीधेसादे 'घोटू ' है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू '

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

माँ अशक्त है 

सीधीसादी प्रतिमा एक सादगी की वह 
 श्वेत केश ,लगती एक साध्वी सी  वह 
मोहमाया से उसका मन थोड़ा विरक्त है 
हमको शक्ति देनेवाली  ,माँ अशक्त है 

ऊँगली पकड़ सिखाया हमको जिसने चलना 
ऊँगली पकड़ हमारी उसको पड़ता  चलना 
दिन भर जो थी व्यस्त काम में ,चलती फिरती 
विवश आज बिस्तर पर है वो ,उठती ,गिरती 
और दवा की गोली मुश्किल से  खाती  है 
इंजेक्शन का नाम लिया , घबरा जाती  है 
करना चाहे काम ,मगर ना उससे होता 
पर दिन भर लेटे आराम न उससे  होता 
छोटी छोटी जिद करती है बच्चों जैसी 
फल ना खाती,दूध न पीती ,बच्चों जैसी 
चौथाई ही रोटी खा पा रही  फ़क़्त  है 
हमको शक्ति देनेवाली ,माँ अशक्त है 

छूटा पूजा पाठ ,न रामायण ना गीता 
आँखे मूँद ,पड़े रहकर ,दिन करता बीता 
फिर भी जिद कर एकादशी का व्रत करती है 
सुबह चाय पहले नहाने की हठ करती है 
पानी भी अब गटकाने में होती मुश्किल 
आगे पाँव बढ़ा ,मुश्किल से सकती है हिल 
गाउन नहीं पहनती ,साड़ी ही पहनेगी 
कोई मिलने आये तो सर तुरंत ढकेगी 
मंद पड़  गयी उसकी आँखों की ज्योति है 
अब उसको सुनने में भी दिक़्क़त होती है 
अस्थि अस्थि दिखती ,तन में कम बचा रक्त है 
हमको शक्ति देने वाली माँ अशक्त है 

होकर के नाराज़ कभी जो थी चिल्लाती 
अब ज्यादा स्पष्ट शब्द भी बोल न पाती 
तन झुर्राया ,मुख कुम्हलाया ,सिकुड़ी आंतें 
इच्छा होती ,किन्तु नहीं कुछ बनता खाते 
थी विशालहृदया पर जबसे बिगड़ी सेहत 
उसका हृदय कामकरता बस बीस प्रतिशत 
बिमारी में बदन  इस तरह टूट गया है 
धरम करम और पूजा करना छूट गया है 
याद पुरानी बातें उसको रहती सारी 
बेटी बेटे ,नाती पोते  सबकी प्यारी 
अब भी अपने सिद्धांतों पर ,मगर सख्त है 
हमको शक्ति देनेवाली ,माँ अशक्त है 

कोई आता ,स्वागत करती है मुस्काके 
स्थिरप्रज्ञ पड़ी रहती है ,खोले आँखें 
नहीं किसी से अब वो करती टोका टाकी
सिर्फ दो बरस ,उम्र शतक करने में बाकी  
जिसने सबके जीवन को ऊष्मा दी ,तपकर 
वही सूर्य अस्ताचल को हो रहा अग्रसर  
हम सब करें प्रार्थना ,सच्चे दिल से चाहें 
उनका सौवाँ जन्मदिवस मिल सभी मनायें 
रहे स्वास्थ्य भी ठीक ,हमेशा वो मुस्कायें  
हम पर आशीर्वादों की बारिश बरसायें 
हमें छत्रछाया दी जिसने ,माँ वो दरख्त है 
हमको शक्ति देनेवाली ,माँ अशक्त है 

मदन मोहन बाहेतीघोटू '



बुधवार, 22 अगस्त 2018

युगे युगे 

तुमने जब पाषाण हृदय बन ,टाला मेरा प्रणय निवेदन ,
लगा वही पाषाण युग मुझे 
तुम भी ठंडी ,मैं भी ठंडा ,ठन्डे थे दोनों के  तन  मन ,
हिमयुग सा ही लगा ये भुझे 
नीलगगन में ,जब उड़ते  हम,फैला कर के दोनों के पर ,
तब  लगता ,द्वापर युग आया 
मेरी बात टाल देती थी तुम हरदम ,बस कल कल कह कर   
तब लगता था कलयुग छाया 
जब थी  तुम ,उन्मुक्त हृदय से ,मुझ पर थी निज प्यार लुटाती,
तब तब रीतिकाल था आता 
मेरी लम्बी उमर रहे इसलिए ,व्रत रखती तुम ,कुछ ना खाती ,
तब वह भक्तिकाल कहलाता 
वृक्ष तनो से , तन टकराते  , आग निकल कर हमें जलाती ,
तब वह होता दावानल था 
तुम समुद्र में भीग नहाती  ,और मेरे मन   आग लगाती ,
तब वह होता बढ़वानल  था 
कितने युग और काल इसतरह ,हमने तुमने ,मिलजुल करके ,
हँसते हँसते ,संग संग काटे 
प्रेमानल और विरहानल में ,जल जल कर के निखर गए हम ,
मिल कर अपने सुख दुःख बांटे 
तुमने जीवन के पल पल में ,बाँध मुझे अपने आँचल में ,
युग युग का आभास कराया 
अपने युगल ,कमल नयनो से ,प्रेमामृत की वर्षा कर कर ,
मेरे जीवन को सरसाया 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

कब सुधरेंगे 

आरोप और प्रत्यारोपों का ,फैला गंद ,छंटेगा कब तक 
टांग खींचना ,एक दूजे की ,होगा बंद ,हटेगा  कब तक 
सत्ता के चक्कर में कब तक ,कौरव पांडव युद्ध करेंगे 
हरेक बात पर ,छेड़छाड़ कर,एक दूजे को क्रुद्ध करेंगे 
कब तक भाईचारा यूं ही ,बिखरेगा हो टुकड़े, टुकड़े 
इस उलझन में ,कौन करेगा ,दूर हमारे ,सबके दुखड़े 
इतने झगड़े ,दंड फंद कर ,भाईचारा ,खाक मिलेगा 
इस कानूनी दांवपेंच में ,कुछ भी नहीं ,तलाक़ मिलेगा 
क्यों न हमें सदबुद्धि आती ,क्यों हम इतने सत्ता लोलुप 
क्यों न कोई इनको समझाता ,क्यों बैठे है सब के सब चुप 
बहुत हो चूका ,बंद करो ये नाटक ,मत फैलाओ भ्रान्ति 
हमें प्रगति ,सदभाव चाहिए ,आवश्यक  है घर में शांति 
ये आपस की कलह ,सुलह में ,जब  बदलेंगे,तब ये होगा 
सुर बदलेंगे,आपस में हम ,गले मिलेंगे ,तब ये होगा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

आओ ,फटे हुए रिश्तों को सिये 

आओ हम तुम ,हंसीख़ुशी का जीवन जियें 
मिलजुल बैठें ,फटे हुये ,रिश्तों  को सियें 

सुई तीखी ,तेज, नज़र हमको आती है 
देती पीड़ा ,दर्द ,चुभोई  जब जाती  है 
किन्तु सुई वोही चुभती जब बन इंजेक्शन 
रोग मिटाती ,पीड़ा हरती ,है भेषज  बन  
काँटा जब चुभ जाता ,होती पीर भयंकर 
सुई से ही वो काँटा  निकला करता ,पर 
करें सही उपयोग ,ख़ुशी का अमृत पियें 
मिलजुल  बैठें ,फटे हुये ,रिश्तों को सियें 

धागा अगर प्रेम का सुई संग  जुड़ जाता 
तो फिर उसके तीखेपन का रुख मुड़ जाता 
सी कर फटे हुये वस्त्रों को जोड़ा करती 
अगर छिद्र हो ,उसे रफू करके वो भरती 
सुई ने कपडे सी, हमको सभ्य बनाया 
पर हम करते ,सुई चुभो कर ,मज़ा उठाया 
थोड़ा सुधरें ,दूर करें अपनी भी कमियें 
मिलजुल बैठें ,फटे हुये रिश्तों को सियें 

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

सोमवार, 20 अगस्त 2018

बात मुझसे मत करो 

बुढ़ापे में लड़कपन की ,बात मुझसे मत करो 
जवानी ,बेधड़कपन की,बात  मुझसे मत करो 
उमर  की चाय में डूबे ,लुगलुगे अब  होगये  ,
बिस्कुटों के कड़कपन की ,बात मुझसे मत करो 
गिल्ली डंडा खेलने के दिन पुराने लद गये ,
खेलते थे जब दनादन ,बात मुझसे मत करो 
चटकती कलियाँ थी जिन पर मंडराती थी तितलियाँ ,
महकते से उस चमन की ,बात मुझसे मत करो 
निकलते तो खिड़कियों से झांकती थी लड़कियां ,
हमारे उस बांकपन की ,बात मत मुझसे करो 
लिपट  जिससे होंश खोते ,होते थे मदहोश हम,
महकते चंदन बदन की ,बात मत मुझसे करो 
आया कब और पंख फैला कब अचानक उड़ गया ,
बीत कैसे गया यौवन ,बात मत मुझसे करो 
संग थे खुशिया  बरसती ,और सुखी परिवार था , 
बिखरों  के बेगानेपन की ,बात मुझसे मत करो 
कहीं पर ईंटे है टूटी ,कहीं उखड़ा पलस्तर ,
खंडहर होते भवन की ,बात मुझसे मत करो 
ना तो समिधाएं बची है और ना है  आहुति ,
पूर्ण  होते इस हवन की ,बात मत मुझसे करो 


मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बस इतना प्यार मुझे देना 

इतना भी प्यार न चाहूं मैं ,जिसको न सकूं मैं रख  संभाल 
इतना न उपेक्षित भी करना ,कि देना निज मन से निकाल 
मेरे तो लिए यही बस है ,कि  डालो  तुम मुझ पर प्रेमदृष्टी 
ना  तो मैं चाहूँ  अतिवृष्टी  ,ना  मुझे चाहिए  अनावृष्टी 
बस प्रेम भरी रिमझिम बारिश ,सिंचित मेरा तनमन करदे 
बस इतना प्यार मुझे देना  जो रससिक्त जीवन कर दे 

ना प्यार चाहिये उदधि सा विस्तृत,उसमे  है  खारापन 
जिसमे हो ज्वार  कभी भाटा,घटता बढ़ता लहरों का मन  
जो चाँद देख कर घटे बढे ,उठ उठ कर लौट जाए लहरे 
नदियों के जल का मीठापन ,उससे मिलने पर ना ठहरे 
ना प्यार कूप जैसा सीमित,ना हो विशाल वह सागर सा 
मीठाजल,सीमित प्रेमपाश ,मैं चाहूँ प्यार सरोवर सा 

ना सीमित नदी सा तटों बीच  ,ना कभी बाढ़ बन कर उमड़े 
ना सूख बहे एक धारा सा  , कूलों  से इतना  जा बिछड़े 
मैं चाहूँ सरस सलिल सरिता ,कलकल करके बहती जाये 
जिसमे मेरी जीवन नैया ,मंथर गति  चलती  मुस्काये  
यह मोड़ उमर का ऐसा है ,तुम पस्त और मैं भी हूँ थका
बस एक चुंबन ही प्यार भरा ,निशदिन तुम देना मुझे चखा  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
सच ,हम कितने बेसबरे है 

हमने जो कुछ भी पाया है ,उससे भी ज्यादा पाने को 
मौकापरस्त है ,मौका पा ,जल्दी से उसे भुनाने को   
कच्ची केरी का पाल लगा ,जल्दी से  आम बनाने को 
अपने सारे संबंधों का ,जी भर कर लाभ उठाने  को 
करते गड़बड़ी ,हड़बड़ी में ,करते प्रयास अधकचरे है 
सच हम कितने बेसबरे है 
किस्मत ने जितना दिया हमें ,उससे ना है संतोष हमे 
औरों को आगे बढा  देख ,मन में आता है  रोष  हमें 
हम भी कुछ कर दिखला ही दे ,आने लगता है जोश हमे 
पर नहीं सफलता जब मिलती ,तो आता है आक्रोश हमें 
और अपना रौब दिखाने को ,हम बनने लगते जबरे है 
सच हम कितने बेसबरे है 
हम आज बीज बो ,फल पाने ,कल से अधीर हो जाते है 
कितना ही सींचों रोज रोज ,फल मौसम में ही आते है 
कितने ही लोग प्रगतिपथ पर ,नित नित रोड़े अटकाते है 
बाधा से लड़ ,धीरे धीरे ,हम  निज  मंजिल को पाते है  
इस धूपछांव के जीवन में ,हम बन जाते चितकबरे है 
सच हम कितने बेसबरे है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
माँ बीमार है
माँ बीमार है
दिल थोडा कमजोर हो गया,घबराता है
थोडा सा भी खाने से जी मचलाता है
आधी से भी आधी रोटी खा पाती है
अस्पताल का नाम लिया तो घबराती है
साँस फूलने लगती जब कुछ चल लेती है
टीवी पर ही कथा भागवत सुन लेती है
जी घबराता रहता है ,आता बुखार है
माँ बीमार है
प्रात उठ स्नान ध्यान पूजन आराधन
गीताजी का पठन ,आरती, भजन, कीर्तन
फिर कुछ खाना,ये ही दिनचर्या होती थी
और रात को हाथ सुमरनी ले सोती थी
ये दिनचर्या बीमारी में छूट गयी है
कमजोरी के कारण थोड़ी टूट गयी है
बीमारी की लाचारी से बेक़रार है
माँ बीमार है
फ़ोन किसी का आता है,खुश हो जाती है
कोई मिलने आता है,खुश हो जाती है
याद पुरानी आती है,गुमसुम हो जाती
बहुत पुरानी बाते खुश हो होकर बतलाती
अपना गाँव मकान , मोहल्ला याद आते है
पर ये तो हो गयी पुरानी सी बाते है
एक बार फिर जाय वहां ,मन बेक़रार है
माँ बीमार है
बचपन में मै जब रोता था,माँ जगती थी
बिस्तर जब गीला होता था,माँ जगती थी
करती दिन भर काम ,रात को थक जाती थी
दर्द हमें होता था और माँ जग जाती थी
अब जगती है,नींद न आती ,तन जर्जेर है
फिर भी सबके लिए काम, करने तत्पर है
ये ममता ही तो है ,माँ का अमिट प्यार है
माँ बीमार है
उसके बोये हुए वृक्ष फल फूल रहे है
सभी याद रखते है पर कुछ भूल रहे है
सबसे मिलने ,बाते करने का मन करता
देखा उसकी आँखों में संतोष झलकता
और जब सब मिलते है तो हरषा करती है
सब पर आशीर्वादो की बर्षा करती है
अपने बोये सब पोधों से उसे प्यार है
माँ बीमार है
यही प्रार्थना हम करते हैं हे इश्वर
उनका साया बना रहे हम सबके ऊपर
जल्दी से वो ठीक हो जाये पहले जैसी
प्यार,डाट  फटकार लगाये पहले जैसी
फिर से वो मुस्काए स्वर्ण दन्त चमका कर
हमें खिलाये बेसन चक्की, स्वयं बना कर
प्रभु से सबकी यही प्रार्थना बार बार है
माँ बीमार है

शनिवार, 18 अगस्त 2018

केरल का जल प्रलय

क्या प्रभु - रुष्ट क्यों?
वो भी अपने देश से?
हो गयी भूल क्या
इस धरा विशेष पे??

ये कहर - ये प्रलय
इस प्राकृतिक उपहार पर?
क्या मिलेगा यहाँ पर
जीवों के संहार से??

ना यहाँ कोई घोर पाप
ना तो कोई उग्रवाद,
ना तो आपके नियम से
कोई भी है यहाँ विवाद...

भोली-भाली प्रकृति यहाँ
भोले-भाले लोग हैं,
हर तरफ हरियाली जैसे
यही स्वर्गलोक है...

फिर भला ये कोप क्यों
किसलिये जलवृष्टि ये?
हे महादेव यहाँ क्यों 
खोली तीसरी दृष्टि ये??

हैं बहुत से और देश
करते रहते केवल क्लेश,
फिर भी उनके पास क्यों
सुख - संपदा अति विशेष??

क्या यही कलिकाल है?
क्या ये न्याय हो रहा?
देखिये जरा देखिये
क्या ये 'हाय' हो रहा...

यदि ये रीति कलियुगी
आप यही चाहते,
क्षमा करें शंभु ये
हम देह नहीं चाहते...

पाप का विनाश हो
पुण्य प्रफुल्लित रहे,
चाहते हैं आप यदि
कि ये 'चर्चित' रहे...

- विशाल चर्चित

बदलता वक़्त 

वक़्त की बेरूखी,
सबको करती दुखी ,
हर चमन में ,बहारें न रहती सदा 
है अगर सुख कभी 
आते दुःख भी कभी 
है कभी सम्पदा तो कभी आपदा 
देख कहते सुमन 
काहे इतराता मन 
आके मधुमख्खियाँ ,रस चुरा लेंगी सब 
लोग लेंगे शहद,
मोम छत्ते का सब ,
जब बनेगा शमा ,ढायेगा वो गजब 
फूल की ये महक ,
मोम की बन दहक 
नाश करती पतंगों का है सर्वदा 
वक़्त की बेरुखी 
करती सबको दुखी ,
हर चमन में बहारे न रहती सदा 
रोज सूरज उगे 
हो प्रखर वो तपे ,
ढलना पड़ता है लेकिन उसे शाम को 
चाहे राजा है वो 
या भले रंक हो ,
मौत ने बक्शा है ,कौन इंसान को 
कर्म अपने करो 
पाप से तुम डरो ,
हो परेशानियां ,मत रहो गमज़दा 
वक़्त की बेरुखी 
करती सबको दुखी ,
हर चमन में बहारे न रहती सदा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

बुधवार, 15 अगस्त 2018

नमन् उन्हें जो आजादी की खातिर सबकुछ भूल गये...


नमन् उन्हें जो आजादी की
खातिर सबकुछ भूल गये,
हँसते-हँसते 'जय हिन्द' बोला
और फाँसी पर झूल गये...

नमन् उन्हें जो सबकुछ था पर
देश की खातिर छोड़ दिया,
आजादी दी, सत्ता सौंपी
और दुनिया को छोड़ दिया...

नमन् उन्हें कि जो सीमा पर
प्रहरी बनकर रहते हैं,
देश सुरक्षित रहे इसलिये
हर दुख सहते रहते हैं...

नमन् उन्हें जो गश्त पे रहते
हर मौसम - हर हाल में,
जो समा गये जनता की खातिर
स्वयं काल के गाल में...

नमन् उन्हें जो देश को लाये
आजादी के बाद यहाँ तक,
मुश्किल हालातों से उबारा
आबादी को आज यहाँ तक...

नमन् उन्हें जो देश का परचम
पूरी दुनिया में लहरा आये,
नमन् उन्हें जो अंतरिक्ष में भी
अपना तिरंगा फहरा आये...

नमन् उन्हें जो अपने क्षेत्र में
करते अर्जित सदा विशेष,
नमन् उन्हें जो देश को हर दिन
करते अर्पित सदा विशेष...

नमन् उन्हें जो करते कार्य
जाति-धर्म से ऊपर उठकर,
कोई मुसीबत में ये दौड़ते
निज स्वार्थ से ऊपर उठकर...

नमन् उन्हें जो अपने अलावा
और्रों के बारे में भी हैं सोचते,
किसी ना किसी तरह देश को
हैं सुदृढ़ करते और जोड़ते...

नमन् उन्हें जो ये 'चर्चित' का
संदेश पढ़ेंगे - सोचेंगे,
देश के लिये सही मार्ग पर
पूरे जोश से हो लेंगे...

जय हिंद - जय भारत
..... वंदे मातरम .....

- विशाल चर्चित

सोमवार, 13 अगस्त 2018

अंगूठी -क्यों रूठी 

कल मैंने अंगूठी से पूछा 'अंगूठी 
तुम अपने प्रियतम अंगूठे से क्यों रूठी 
क्या बात हुई जो तुमने उससे मुख मोड़ा 
 उसे अकेले तन्हाई में तड़फता छोड़ा 
और पड़ोस में रहने वाली उंगलियों के साथ 
गुजार रही हो अपने दिन और रात 
अंगूठी बोली क्या करूं 
,मेरा पिया अनपढ़ है ,
मुझे बिलकुल नहीं सुहाता है 
दस्तखत भी नहीं कर सकता ,
अंगूठा लगाता है 
झगड़ालू भी है ,
मुझे टी ली ली ली कह कर चिढ़ाता है 
किसी से उधार लेकर नहीं चुकाता 
अंगूठा दिखाता है 
कभी 'थम्स अप 'करता है ,
कभी 'थम्स डाउन 'कहता है 
मेरे लिए उसके पास वक़्त ही नहीं है ,
फेसबुक और व्हाट्सअप में इतना व्यस्त रहता है 
बस इन्ही कारणों से मेरी उससे नहीं पट पाती है 
और जब मैंने देखा कि उंगलिया ,
अपने इशारों पर पति को नचाती है 
तो उनसे सीखने को ये हुनर ख़ास 
मैं चली आयी हूँ उँगलियों के पास  
फिर भी जब कभी आती है उनकी याद 
तो जब कुछ लिखने को कलम पकड़ने ,
जब उँगली आती है अंगूठे के पास 
मैं कर लेती हूँ उनकी नजदीकियों का अहसास
मैंने कहा जब तुम्हारी और तुम्हारे पति में ,
अलगाव और दूरियां स्पष्ट नज़र आती है 
तो फिर मिलन की प्रथम रस्म याने कि सगाई में ,
ऊँगली में अंगूठी क्यों पहनाई जाती है 
अंगूठी हंसी और बोली कि 
सगाई में अंगूठी इसलिए पहनाई जाए 
ताकि प्रथम मिलन में ही होने वाले पति पत्नी ,
एक दूसरे को अंगूंठा नहीं दिखलायें 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
 

मैं गधे का गधा ही रहा 

प्रियतमे तुम बनी ,जब से अर्धांगिनी ,
      मैं हुआ आधा ,तुम चौगुनी बन  गयी 
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
         गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 

मैं तो कड़वा,हठीला रहा नीम ही,
     जिसकी पत्ती ,निबोली में कड़वास है 
पेड़ चन्दन का तुम बन गयी हो प्रिये ,
  जिसके कण कण में खुशबू है उच्छवास है 
मैं तो पायल सा खाता रहा ठोकरें ,
    तुम कमर से लिपट ,करघनी बन गयी 
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा ,
       गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
 
मैं था गहरा कुवा,प्यास जिसको लगी ,
     खींच कर मुश्किलों से था पानी पिया 
तुम नदी सी बही ,नित निखरती गयी ,
     सबको सिंचित किया ,नीर जी भर दिया  
मैं तो कांव कांव, कौवे सा करता रहा ,
            तुमने मोती चुगे ,हंसिनी बन  गयी    
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
        गाय थी तुम प्रिये, शेरनी बन गयी
 
मैं तो रोता रहा,बोझा ढोता रहा ,
         बाल सर के उड़े, मैंने उफ़ ना करी 
तुम उड़ाती रही,सारी 'इनकम' मेरी,
        और उड़ती रही,सज संवर,बन परी   
मैं फटे बांस सा ,बेसुरा  ही रहा,
          बांसुरी तुम मधुर रागिनी बन गयी
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
  
फ्यूज ऐसा अकल का उड़ाया मेरी ,
        तुम सदा मुझको कन्फ्यूज करती रही 
मैं कठपुतली बन  नाचता ही रहा ,
          मनमुताबिक मुझे यूज करती रही
मैं तो कुढ़ता रहा और सिकुड़ता रहा ,
          तुम फूली,फली,हस्थिनी  बन गयी 
मैं गधा था गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
   
प्यार का ऐसा चस्का लगाया मुझे,
        चाह में जिसकी ,मैं हो गया बावला 
अपना जादू चला ,तुमने ऐसा छला ,
           उम्र भर नाचता मैं रहा मनचला 
मैं तो उबली सी सब्जी सा फीका रहा ,
        प्रियतमे दाल तुम माखनी बन गयी 
 मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन  गयी 
         
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 6 अगस्त 2018

बचपन के स्कूल-टीचर की मार 

बचपन की पुरानी यादें ,
जब मेरे मानसपटल पर दौड़ती है 
तो मास्टरजी की मार और टीचरों की डाट ,
मेरा पीछा नहीं छोड़ती है  
जिन्होंने मुझे डाट डाट कर ढीठ बना दिया था 
आज की परिस्तिथियों के अनुकूल ,
एकदम ठीक बना दिया था 
इसी शिक्षण के कारण आज मैं ,
बिना सेंटीमेंटल हुए ,
अपने बॉस की डाट सुन पाता हूँ 
और जब बीबी डाटती है ,
तो भी मुस्कराता हूँ 
बचपन में स्कूल की शैतानियों में 
आता था बड़ा मज़ा 
पर उसके बाद हमें झेलनी पड़ती थी 
मास्टरजी की सजा 
और इन सजाओं के होते थे अनेक प्रकार 
पर सबसे खतरनाक होती थी ,
मास्टरजी की छड़ी की मार 
हम काँप जाते थे जब वो कहते थे हाथ बढ़ाओ 
अपनी गलती पर दो बेंते खाओ 
और उनकी छड़ी की मार से ,
हम सहम सहम जाते थे 
अलग अलग अध्यापक अलग अलग ढंग से ,
अपनी अपनी सजा सुनाते थे 
एक पूछते थे कल का पाठ सुनाओ 
नहीं बता पाये तो बेंच पर खड़े हो जाओ 
हम बेहया से बेंच पर खड़े खड़े मुस्कराते थे 
और मास्टर जी ने देख लिया तो 
कक्षा से निकाल दिए जाते थे 
इस सजा का हम बड़ा मजा उठाते थे मुस्कराकर 
जब तक दूसरा पीरियड आता ,
स्कूल के बाहर जा ,
चले आते थे चने की चाट खाकर 
एक टीचर ,दो उंगुलियों के बीच ,
पेंसिल रख कर उंगुलियों से दबाती थी 
सच बड़ा दर्द होता था ,चीख निकल जाती थी 
और जब हम क्लास में शोर कर,चुप नहीं बैठते थे 
तो इतिहास वाले अध्यापकजी ,हमारे कान ऐंठते थे 
कोई टीचर जब हमें क्लास में ,
किसी से बाते करते हुए पाते थे 
तो दोनों को बेंच पर खड़ा करवा कर ,
एक दुसरे के कान खिंचवाते थे 
गणित वाले टीचर गलती होने पर ,
गालों  पर चपत मारते थे 
अपने घर की भड़ास ,
स्कूल के बच्चों पर निकालते थे 
हिंदी वाले पंडितजी शुद्ध शाकाहारी थे 
पर जब वो कुपित हो जाते थे 
तो सजा 'नॉनवेजिटेरियन ' सुनाते  थे 
और हमें क्लास में मुर्गा बनाते थे 
कोई  एक फुटे वाली स्केल से मारता था ,
जब हमें शरारत करते हुए देखता था 
कोई पीठ पर धौल मारता था 
तो कोई जोर से चाक फेकता था 
उन दिनों 'छड़ी पड़े छम छम 
,विद्या आवे घम घम 'वाला कल्चर था 
सच ,उसमे बड़ा असर था 
मार के डर  से बच्चो में सुधार होता था 
ये सजा नहीं ,मास्टरजी का प्यार होता था 
उन सजाओं ने हमें जीवन में ,
मुसीबत झेलने का पाठ पढ़ाया है 
आज के जीवन में 'स्ट्रगल 'करना सिखाया है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

रविवार, 5 अगस्त 2018

चरण महिमा 

छुवो तो चरण कमल ,धोवो तो चरणामृत ,
चरणों की शरणो में लोग बहुत पड़ते है 
रोंदो तो पाँव तले ,मंजिल पर पाँव चढ़े ,
मुश्किल तब ,जब कांटे ,पांवों में गढ़ते है 
पैर अगर भारी है ,तो समझो खुशखबरी ,
पैर जमीं पर न पड़े ,जब चढ़ता यौवन है 
पैर झुके ,दबे पाँव ,आगमन बुढ़ापे का ,
बोझ खुदका सहने का ,नहीं बचता दमखम है 
चोर चले दबे पाँव ,जूतों में दबे  पाँव ,
थके पाँव  दबवा लो ,राहत दिलवाते है 
चलते तो चार कदम ,साथ चलो मिला कदम ,
खींचों तो टाँगे है ,मारो तो  लाते  है 
चार पैर कुर्सी के ,चार पैर का पलंग ,
बैठ या सो इन पर ,उमर गुजर जाती है 
अर्ध पुरुष दोपाया ,चौपाया बन जाता ,
शादी कर जीवन में ,अर्धांगिनी  आती है 
कोई के पाँव फूल ,जाते है मुश्किल में ,
कोई के पांवो में  बैठता शनीचर  है 
तो कोई पाँव पकड़ ,पाँव  पसारा करता ,
कोई घूमता रहता ,पांवों में चक्कर है 
पैर लड़खड़ाते कुछ ,पैर फिसल जाते कुछ ,
फूंक फूंक हरेक कदम ,समझदार रखते है 
 बैठता कोई है ,पाँव पर पाँव धरे 
कोई पाँव सर पर रख ,इधर उधर भगते है 
कोई खड़ा हो जाता ,जब पावों पर अपने ,
परिवार अपना वो ,तब ही बसाता है 
कोई के पैरों में लगती जब मेंहदी है 
 मुश्किल से इधर उधर,वो आता जाता है  
कोई के पैरों में ,बंधी बेड़ियाँ रहती ,
कोई के पैरों में घुँघरू है ,पायल है 
पैर ठुमक कर चलते ,पैर नृत्य करते है ,
मानव के जीवन में ,पैरों का संबल है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
तोड़ फोड़ 

कभी उछाले मार उदधि तोड़े मर्यादा 
तोड़ फोड़ पर कभी हवा होती आमादा 
तोड़ सभी तटबंध ,कभी सरिता बहती है 
तोड़ फोड़ तो जीवन में चलती रहती  है 
टूट  दूध के दांत पुनः फिर आ जाते है 
किन्तु बुढ़ापे में फिर टूट टूट जाते है 
रोज टूटते बाल  ,आप जब करते कंघी 
वृद्धावस्था आई,खोपड़ी होती  नंगी 
टूट डाल से फूल,बनाते सुन्दर माला 
टूट वृक्ष से फल भी देते  स्वाद निराला 
अपना कोई रूठ अगर जाता जीवन में 
तो जाता दिल टूट ,दर्द होता है मन में 
टूटा धागा अगर प्रेम का ,गाँठ पड़ेगी 
टूट जायेगे रिश्ते यदि जो बात बढ़ेगी 
साथ आपके अपनों का जब छूटा करता 
आसमान में कोई सितारा टूटा  करता 
किसी सुहागन से  किस्मत जब उसकी रूठे 
बुझ जाते अरमान,हाथ की चूड़ी टूटे 
टूट टूट कर भरी हुई है माँ में ममता 
नेता नहीं निभाते वादा ,टूटे जनता 
राजनीती में तोड़फोड़ होती  है हरदम 
पी मौसम्बी जूस ,तोड़ते नेता अनशन 
टूट आइना ,टुकड़े टुकड़े हो जाता है 
हर टुकड़े में पूरा अक्स नज़र आता है 
रूढ़िवाद को तोड़ रही है पीढ़ी नूतन 
मिलते प्रेमी युगल तोड़ कर सारे बंधन 
भाव टूटते है जब तो शेयर बाज़ार टूटता 
जब ज्यादा बढ़ जाता है तो परिवार टूटता 
होती गलतफहमियां है तो प्यार टूटता 
सांस टूटती है तो हमसे  संसार छूटता 
पिया मिलन की एक विरहन की सांस न टूटे 
कभी किसी का तुम पर से विश्वास न टूटे 
टूट  फूट घर की सम्भले है  ,रखरखाव से 
टूट  फूट जीवन की संवरे ,प्रेम भाव से 

घोटू 

आस बरसात की 

हुई व्याकुल धरा ग्रीष्म के त्रास से 
देखती थी गगन को बड़ी आस  से 
मित्र बादल ने जल सी भरी अंजुली 
सोचा बरसा दूँ शीतलता ,राहत भरी 
चाह उसकी अधूरी मगर रह गयी 
आयी सौतन हवा ,खींच संग ले गयी 
और आकाश सब देखता  ये रहा 
न कुछ इससे कहा ,न कुछ उससे कहा 
छेड़खानी ये आपस में चलती रही 
तप्त धरती अगन में तड़फती  रही 
लाख बादल घिरे कौंधी और बिजलियाँ 
प्यासी धरती का जलता रहा पर जिया 

घोटू 
पापा तो पापा होते है 

लाख मुश्किलें हो जीवन में ,कभी नहीं आपा खोते है 
पापा तो पापा  होते है 
हो संतान भले नाशुक्री ,लायक हो चाहे नालायक  
बेगाना व्यवहार अधिकतर  ,होता जिनका पीड़ादायक
अपने घर में ,अपनी ही सन्तानो से डरते रहते है 
पर बच्चे ,खुशहाल ,सुखी हो,यही दुआ करते रहते है 
घरवालों  के तिरस्कार से ,भरा बुढ़ापा वो  ढोते  है 
पापा तो पापा होते है 
भले विचारों में उनके और इनके हो पीढ़ी का अंतर 
भले बहू ने, आ  ,बेटे के ,कानो में फूँका हो  मंतर  
भले भुला उपकार समझते  बच्चे है उनको नाकारा 
किन्तु मुसीबत यदि आ जाए  ,बढ़ कर  देते यही सहारा 
एकाकीपन की पीड़ा से ,परेशान ,घुट कर  रोते है 
पापा तो पापा होते है 
उनसे आँख चुराने लगते ,जब उनकी आँखों के टुकड़े 
तो फिर भला कौन के आगे ,जा वो  रोवें अपने दुखड़े 
वो था जिन्हे सहारा देना ,वो ही कन्नी  काट रहे  है 
इज्जत देने के बदले वो ,मात पिता को डाट रहे  है 
फिर भी सदबुद्धि आएगी ,मन में सपन संजोते है 
पापा तो पापा होते है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

बुधवार, 1 अगस्त 2018

संगिनी ,ओ मेरी संगिनी 

पंचतत्वों से मिल तुम हो ऐसी बनी
पूर्ण मुझको किया , बन के अर्धांगिनी 
संगिनी ,ओ मेरी संगिनी 
तुम हवा हो हवा, बन के शीतल पवन ,
मेरे जीवन में लाना ,महक प्यार की 
भूल कर भी कभी ,बन के तूफ़ान तुम ,
लूटना मत ख़ुशी ,मेरे गुलजार की 
खुशबुओं से रहो ,तुम हमेशा सनी 
पूर्ण मुझको किया बन के अर्धांगिनी 
संगिनी ,ओ  मेरी संगिनी 
तुम हो शीतल सा जल और जल ही रहो ,
मंद  सरिता सी बहती रहो तुम सदा 
तोडना ना कभी ,अपने तटबंध तुम ,
बाढ़ बन के न लाना ,कभी आपदा 
सबके मन को हरो ,कर के कल कल ध्वनि 
पूर्ण मुझको किया ,बन के अर्धांगिनी 
संगिनी ,ओ मेरी संगिनी 
तुम अगन हो अगन, बाती दीपक की बन ,
जगमगाना प्रिये ,मेरे घर बार को
 बन के ज्वाला कभी तुम भड़कना नहीं ,
स्वाह करना न खुशियों के संसार को 
तुमसे जीवन में फैले सदा रौशनी 
पूर्ण मुझको किया बन के अर्धांगिनी 
संगिनी ,ओ मेरी संगिनी 
तुम धरा हो धरा ,मातृरूपा बनो ,
सबका पोषण करो ,तुम रहो उर्वरा 
पेड़ पौधे फसल ,सारे फूले फले ,
तुम बंजर कभी भी न बनना जरा 
रहे हरियाली जीवन में हरदम बनी 
पूर्ण मुझको किया बन के अर्धांगिनी 
संगिनी ,ओ मेरी संगिनी 
तुम हो आकाश विस्तृत ,भरा प्यार से ,
छा  रहा हर तरफ ,ओर ना छोर है 
बन के पंछी मैं उन्मुक्त उड़ता रहूँ ,
तेरी बाहों का बंधन चहुँ ऒर है 
मैं हूँ हंसा तेरा ,तू मेरी हंसिनी 
पूर्ण मुझको किया बन के अर्धांगिनी 
संगिनी ,ओ मेरी संगिनी 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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