पथ्य
लूखी रोटी,सब्जी पतली
चांवल लाल,दाल भी पतली
और सलाद,मूली का गट्टा
और साथ में फीका मट्ठा
डाक्टर ने जो बतलाया था
कल मैंने वो ही खाया था
या बस अपना पेट भरा था
सच मुझको कितना अखरा था
एक तरफ पकवान,मिठाई
देख देख नज़रें ललचाई
मगर बनायी इनसे दूरी
बीमारी की थी मजबूरी
कई बार ये आता जी में
इतना सब कुछ दिया विधी ने
सब इन्जोय करो,कहता मन
तो फिर क्यों है इतना बंधन
खाना चाहें,खा न सके हम
कब तक खुद को रोकेंगा मन
हम सब है खाने को जीते
या जीने को खाते,पीते
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।