बुढ़ापे की पीड़ा -चार मुक्तक
1
क्या गज़ब का हुस्न था,वो शोख थी,झक्कास थी
धधकती ज्वालामुखी के बीच जैसे आग थी
देख कर ये,कढ़ी बासी भी उबलने लग गयी,
मन मचलने लग गया,नज़रें हुई गुस्ताख़ थी
2
हम पसीना पसीना थे,हसीना को देख कर
पास आई ,टिशू पेपर ,दिया हमको ,फेंक कर
बोली अंकल,यूं ही तुम क्यों,पानी पानी हो रहे ,
किसी आंटीजी को ताड़ो,उमर अपनी देख कर
3
जवानी की यादें प्यारी,अब भी है मन मे बसी
बड़े ही थे दिन सुहाने,और रातें थी हसीं
बुढ़ापे ने मगर आकर,सब कबाड़ा कर दिया ,
करना चाहें,कर न पाये,हाय कैसी बेबसी
4
घिरते तो बादल बहुत हैं,पर बरस पाते नहीं
उमर का एसा असर है ,खड़े हो पाते नहीं
देखकर स्विमिंगपूल को,मन मे उठती है लहर,
डुबकियाँ मारे और तैरें,कुछ भी कर पाते नहीं
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।