इकहत्तर की उमर हो गयी
पल पल करके ,गुजर गए दिन,दिन दिन करके ,बरसों बीते
इकहत्तर की उमर हो गयी,लगता है कल परसों बीते
जीवन की आपाधापी में ,पंख लगा कर वक्त उड़ गया
छूटा साथ कई अपनों का ,कितनो का ही संग जुड़ गया
सबने मुझ पर ,प्यार लुटाया,मैंने प्यार सभी को बांटा
चलते फिरते ,हँसते गाते ,दूर किया मन का सन्नाटा
भोला बचपन ,मस्त जवानी ,पलक झपकते ,बस यों बीते
इकहत्तर की उमर हो गयी ,लगता है कल परसों बीते
सुख की गंगा ,दुःख की यमुना,गुप्त सरस्वती सी चिंतायें
इसी त्रिवेणी के संगम में ,हम जीवन भर ,खूब नहाये
क्या क्या खोया,क्या क्या पाया,रखा नहीं कुछ लेखा जोखा
किसने उंगली पकड़ उठाया,जीवन पथ पर किसने रोका
जीवन में संघर्ष बहुत था ,पता नहीं हारे या जीते
इकहत्तर की उमर हो गयी,लगता है कल परसों बीते
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
अद्भुत , अति उत्तम हर शब्द - शब्द में अंतर मन का समावेश बहुत खूब
जवाब देंहटाएंमेरी नई रचना
खुशबू
प्रेमविरह
श्रीमती वन्दना गुप्ता जी आज कुछ व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (23-02-2013) के चर्चा मंच-1164 (आम आदमी कि व्यथा) पर भी होगी!
सूचनार्थ!
हार-जीत कौन जानता है अच्छी तरह खेले यही संतोष बहुत है और फिर इकहत्तर ही हुये अभी तो शतक बनना बाकी है.
जवाब देंहटाएंaap sabko bahut bahut dhanywad
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