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गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

ठूँठ


घर के बाहर
कुछ दूरी पर
सड़क किनारे
एक वृक्ष था
कई वर्षों से,
पर आज वहाँ
अचेतन-सा
खड़ा एक ठूँठ,
तिरस्कृत-सा
बहिष्कृत-सा
समय के साथ
सुख वो गया
सारे पत्ते छोड़ गए
डलियाँ काट ली गई,
अपनों से ठुकराया हुआ
एकटक स्तब्ध-सा |

जवानी में उसके
पूछ थी बहुत
फलदार था
छायादार था
तारीफ था पाता
इतराता था
सानिध्य उसके
भीड़ थी होती,
बड़ी बड़ी डालियाँ,
असंख्य पत्ते
हरवक्त खड़ा वो
लहलहाता था |

पर आज तो
दृश्य उलट है
देखता नहीं कोई
पूछता भी नहीं
त्यागा हुआ है
तन्हा -सा है
कोई नहीं है उसका,
चौपाया अकसर
देह रगड़ते
शायद है रोता
व्याकुल है होता
रहता मन मसोस का
कुछ भी ना कह पाता |

इंतजार में है
कोई किसी दिन
आयेगा उसके पास
काट लेगा उसे
जलाएगा उसको
हाथों को सेकेगा
शायद कुछ ऐसा ही
अंत है उसका
बंद आँखों से अपने
वह राह देख रहा |

राहगीरों को चलते
जब देखता है
कभी-कभी तो वो
बहुत ज़ोर से हँसता
शायद है कहता-
तेरा भी हाल
मुझ जैसा होगा
जीना है जी लो
भाग-दौड़ कर लो
जानता हूँ इन्सानों को
आगे चलके जीवन में
तेरा भी तिरस्कार होगा
तेरा भी बहिष्कार होगा
मौत की भीख माँगेगा
उम्र के इस पड़ाव पर |

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही भावनामई रचना.बहुत बधाई आपको .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये

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  2. सूखा पेड़ टूटी डालियाँ कहता अपनी व्यथा क्या !
    मार्मिक !

    जवाब देंहटाएं
  3. एक दिन सबका अंत आना है पेड़ के माध्यम से इंसानों को उनकी वृद्धावस्था का आइना दिखाया बहुत सार्थक कटाक्ष यही तो हो रहा है आज के वृद्धों का इस सार्थक रचना के लिए बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं

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