खुशियाँ आज़ादी की हर वर्ष मानते हैं,
पर हजारों गुलामी ने अब भी है घेरा;
फूल कई रंगों के हम अक्सर हैं लगाते,
पर मन में फूलों का कहाँ है डेरा ?
नाच-गा लेते हैं, झंडे पहरा लेते हैं,
अन्दर तो रहता है मजबूरियों का बसेरा,
लोगों को देखकर मुस्कुराते हैं हरदम,
मन में होती है कटुता और दिल में अँधेरा |
सोच और मानसिकता आज़ाद नहीं जब तक,
तो क्या मतलब ऐसे आज़ादी के जश्न का,
एक दिन का उत्सव, अगले दिन फिर शुरु,
गुलामी की वही जिंदगी, बिना जवाब दिए प्रश्न का |
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