प्रेम की सकड़ी गली में दो समा सकते नहीं ,
कृष्ण राधा मिलन साक्षी ,कुञ्ज की गलियाँ रही
रसिक भंवरा ही ये अंतर बता सकता है तुम्हे
फूलों में ज्यादा मज़ा या फिर मज़ा कलियों में है
काजू,पिश्ता,बादामों का ,अपना अपना स्वाद पर
सर्दियों में,धुप में ,फुर्सत में ,छत पर बैठ कर
खाओगे,मुंह से लगेगी ,छोड़ पाओगे नहीं,
छील करके खाने का ,जो मज़ा मूंगफलियों में है
कंधे से कंधा मिलाओ,भले टकरा भी गये
कोई कुछ भी ना कहेगा ,गली का कल्चर है ये
इसलिये लगती भली है 'घोटू'हमको ये गली,
वो मज़ा या थ्रिल कभी आता न रंगरलियों में है
बनारस की सकड़ी गलियाँ ,प्यारी रौनक से भरी ,
दिल्ली की वो चाट पपड़ी ,परांठे वाली गली
जलेबी सी टेडी मेडी ,पर रसीली स्वाद है ,
नहीं सड़कों पर मिलेगा, जो मज़ा गलियों में है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (22-05-2013) के कितनी कटुता लिखे .......हर तरफ बबाल ही बबाल --- बुधवारीय चर्चा -1252 पर भी होगी!
सादर...!
सुंदर
जवाब देंहटाएंPahli baar aaapke blogpe aayee hun..bahut achha laga!
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