ये मेरी कवितायेँ
जो मेरे अंतर को ,हिला हिला देती है
कभी मार देती है,कभी जिला देती है
कभी रुलाती मुझको और कभी सहलाती
जब मेरी पीडायें,कवितायेँ बन जाती
मेरे लब मौन और शांत रहा करते है
आँखों से आंसूं ना,शब्द बहा करते है
लेखनी दर्दों को,पहनाती जामा है
सिर्फ चंद लफ्जों में, पीर सब समाना है
उधड़ते रिश्तों को,भावों के धागे से
सुई ले तुरपतें है, पीछे या आगे से
पत्थर से उर पर है,जमी काई सी फिसलन
फिसल फिसल कर यादें,कवितायेँ जाती बन
कविता की हर पंक्ति ,कतरन है यादों की
कुछ टूटे सपनो की,कुछ झूंठे वादों की
जोड़ इसी कतरन को,बन जाता कम्बल है
एकाकी जीवन का, ये ही तो संबल है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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15 घंटे पहले
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