मै प्लास्टिक का दाना हूँ
मै प्लास्टिक का दाना हूँ
श्वेत वर्ण सुन्दर और मोती सा सुहाना हूँ
समय के एक्सट्रूडर में,
जब जब मै पिघलता हूँ
अलग अलग सांचों में,
अलग अलग रूपों में,
ढलता,संवरता हूँ
कभी मै कंघा बन,
गौरी क्र नरम नरम,
केशों को सहलाता हूँ
कभी खिलौना बन कर,
रोते हुए बच्चों को,
खुश कर हंसाता हूँ
कभी बाल्टी बन कर,
अपने में पानी भर,
उनको नहलाता हूँ
चाय का कप बन कर,
उनके होठों से लग,
कितना सुख पाता हूँ
बेग बना तो सब्जी,
और चीजें घर भर की ,
भर भर के लाता हूँ
और टूट जाने पर,
फेंक दिया जाता या,
बेच दिया जाता हूँ
ये मेरे जीवन का अंत नहीं होता है
बार बार गलता हूँ,
बार बार ही मेरा पुनर्जनम होता है
बार बार नया रूप,
बार बार तिरस्कार
उम्र के साथ साथ,
कमजोरी बार बार
कभी ख़ुशी होती है,
कभी कभी रोता मन
क्या ये ही है नियति,
क्या ये ही है जीवन
जगती के चक्कर का,बस आना जाना हूँ
मै प्लास्टिक का दाना हूँ
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
रिश्तों और जीवन में संतुलन का पाठ पढ़ाती गणित
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*रिश्तों और जीवन में संतुलन का पाठ पढ़ाती गणित*
बचपन से ही गणित से हमारा एक अजीब-सा रिश्ता रहा है। न जाने क्यों, इस विषय
में जितना गहराई से उतरने की कोशिश...
4 घंटे पहले
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