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मंगलवार, 8 मई 2012

मृत्यु

अभी हूं।
पर, पलक झपकते ही
हो सकता हूं
‘नहीं रहा’।

और, लग सकता है
पूर्णविराम।
सब-कुछ रह सकता है
धरा का धरा।

लेकिन, अभी सोचा नहीं
क्या फर्क है
होने और
चले जाने में।

अभी मनन करना है
कितना फासला है
दोनों स्थितियों में
बस कुछ, कदम या
मीलों।

पर, जाना तो है
एक दिन।
फिर, क्यूं मढ़़ रहा हूं
एक कपोल लोक
‘मेरा’ और ‘मेरे स्वार्थ का’।

रचनाकार-हरि आचार्य

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