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बुधवार, 30 नवंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6


भगवती शांता परम सर्ग-१  प्रस्तावना

भगवती शांता परम-सर्ग-२  शिशु-शांता 

भगवती शांता परम सर्ग-5

भाग - 1
कौशल्या कन्या पाठशाला 
अंगराज के स्वास्थ्य को, ढीला-ढाला पाय |
चम्पारानी की ख़ुशी, सारी गई बिलाय ||

शिक्षा पूरी कर चुके, अपने राजकुमार |
अस्त्र-शस्त्र सब शास्त्र में, पाया ज्ञान अपार ||

व्यवहार-कुशल नीतिज्ञ, वय अट्ठारह साल |
राजा चाहें सोम से, पद युवराज सँभाल ||

शांता आगे बढ़ करे, सारे मंगल कार्य |
बटुक परम साथे लगा, सेवे वह आचार्य ||

गुरुजन के सानिध्य में, उसको होता बोध |
दीदी से कहने लगा, दूर करें अवरोध ||

प्रारम्भिक शिक्षा हुई, थी शांता के संग |
पूरी शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||

सुनकर के अच्छा लगा,  देती आशीर्वाद |
सृन्गेश्वर भेजूं  तुझे, समारोप के बाद ||

आया उसको ख्याल इक, रखी बाँध के गाँठ |
कन्याशाला से बढ़ें, अंगदेश  के ठाठ ||

सोम बने युवराज तो, आया श्रावण मास |
सूत्र बांधती भ्रात को, बहनों का दिन ख़ास ||

आई श्रावण पूर्णिमा,  सूत्र बटुक को बाँध |
गई सोम को बाँधने, मन में निश्चित साँध ||

राज महल में यह प्रथम,  रक्षा बंधन पर्व |
सोम बने युवराज हैं, होय बहन को गर्व ||

चम्पारानी थी खड़ी, ले आँखों में प्यार |
शांता अपने भ्रातृ की, आरति रही उतार ||

रक्षाबंधन बाँध के, शांता बोली भाय |
मोती-माणिक राखिये, यह सब नहीं सुहाय ||

दीदी खातिर क्या करूँ, पूँछें जब युवराज |
कन्या-शाला दीजिये, सिद्ध कीजिये काज ||

बोले यह संभव नहीं, यह शिक्षा बेकार |
पढ़कर कन्या क्या करे, पाले-पोसे नार ||

कन्याएं बेकार में,  समय करेंगी व्यर्थ  ||
गृह कार्य सिखलाइये, शिक्षा का क्या अर्थ ||

माता ने झटपट किया, उनमे बीचबचाव  |
शिक्षित नारी से सधे, देश नगर घर गाँव ||

वेदों के विपरीत है, नारी शिक्षा बोल |
उद्दत होते सोम्पद, शालाएं मत खोल ||

बोली मैंने भी पढ़ी, शांता कर प्रतिवाद |
वेद-भाष्य रिस्य सृंग का, कोई नहीं विवाद ||

गौशाला को हम चले,  बाकी काम अनेक |
श्रावण बीता जाय पर, हुई न वर्षा एक ||

त्राहि-त्राहि परजा करे, आया अंग अकाल |
खेत धान के सूखते, ठाढ़े कई सवाल ||

गौशाला में आ रहा, बेबस गोधन खूब |
पानी जो बरसा नहीं, जाए जन मन ऊब ||

दूर दूर से आ रहे, गंगाजी के तीर ||
देखों उनकी दुर्दशा, करत घाव गंभीर ||

छोड़े अपने बैल सब, गाय देत गौशाल |
जोहर पोखर सूखते, बाढ़ा बड़ा बवाल ||

सब शिविरों में आ रहे, होता खाली कोष |
कन्या शाला के लिए, मत दे बहना दोष ||

इतने में दालिम दिखा, बोला जय युवराज |
मंत्री-परिषद् बैठती, कुछ आवश्यक काज ||

पढ़ चेहरे के भाव को, दालिम समझा बात ||
शांता बिटिया है दुखी, दुखी दीखती मात ||

दालिम से कहने लगी, परम बटुक की चाह |
पढने की इच्छा प्रबल, दीजे तनिक सलाह ||

जोड़-घटाना जानता, जाने वह इतिहास |
वह भी तो सेवक बने, मात-पिता जब दास ||

लगी कलेजे में यही,  उतरी गहरे जाय |
सोचें न उत्कर्ष की, शांता कस समझाय ||

दुखते दिल से पूछती, अच्छा कहिये तात |
राजमहल के चार कक्ष, इधर कहाँ इफरात ||

चम्पा-रानी भी कहें, हाँ दालिम हाँ बोल |
कन्या-शाला को सके, जिसमें बिटिया खोल ||

हाथ जोड़ करके कहे,  यहाँ नहीं अस्थान |
महल हमारा है बड़ा, मिला हमें जो दान ||

शांता उछली जोर से, हर्षित निकले चीख |
कन्या-शाला के लिए, मांगे शांता भीख ||

शर्मिंदा क्यूँ कर रहीं, हमको ख़ुशी अपार |
ठीक-ठाक करके रखूं, कल मैं कमरे चार ||

माता को लेकर मिली, गई पिता के कक्ष |
अपनी इच्छा को रखा, सुनी राजसी पक्ष ||

सैद्धांतिक सहमति मिली, सौ पण का अनुदान |
कौशल्या शाळा खुली, हो नारी उत्थान ||

दूर दूर के कारवाँ, उनके संग परिवार ||
रूपा शांता संग में,  करने गई प्रचार ||

रुढ़िवादियों ने वहाँ, पूरा किया विरोध |
कई प्रेम से मिल रहे, कई दिखाते क्रोध ||

घर में खाने को नहीं, भटक रहे हो तीर |
जाने कब दुर्भिक्ष में, छोड़े जान शरीर || 

नौ तक की कन्या यहाँ, छोडो मेरे पास |
भोज कराउंगी उन्हें,  पूरे ग्यारह मास ||


गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||


धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल,इच्छित मिलें पदार्थ ||

इंद्र-देवता करेंगे, खुश हो के बरसात |
 फिर कन्या ले जाइए, मान लीजिये बात ||

चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |
तेरह कन्यायें जमा, देती शाला खोल ||

एक कक्ष में दरी थी, उस पर चादर डाल |
तेरह बिस्तर की जगह, पंद्रह की तैयार ||


कक्ष दूसरा बन गया, फिर भोजन भंडार |
कार्यालय तीजा बना, कक्षा बनता चार ||


जिम्मेदारी भोज की, कौला  रही उठाय |
सौजा दादी बन गई, बच्चों की प्रिय धाय ||


शांता पहली शिक्षिका, रूपा का सहयोग |
तख्ती खड़िया बँट गई,जमा हुवे कुछ लोग ||


रानी माँ आकर करें, शाळा शुभ-आरम्भ |
आड़े पर आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||


नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |
आई रमणी रमण की, लगा रही खुद हाथ ||


पहले दिन की प्रार्थना, सादर शारद केर |
एकदन्त की विनय से, कटते बाधा-फेर ||


स्वस्थ बदन ही सह सके, सांसारिक सब भार |
बुद्धी भी निर्मल रहे, बढ़े सकल परिवार ||


रूपा के व्यायाम से, बच्चे थक के चूर ||
शुद्ध दूध मिलता उन्हें, घुघनी भी भरपूर ||


पहली कक्षा में करें, बच्चे कुछ अभ्यास ||
गोला रोटी सा करे, रेखा जैसे बांस ||


एक घरी अभ्यास कर, गिनती सीखे जांय ||
दस तक की गिनती गिनें, रूपा रही बताय ||


सृंगी के अभिलेख से, सीखी थी इक बात |
पारेन्द्रिय अभ्यास से, हुई स्वयं निष्णात ||


दोपहर में छुट्टी हुई, पंगत सभी लगाय |
हाथ-पैर मुंह धोय के, दाल-भात सब खाय ||


एक एक केला मिला, करते सब विश्राम |
कार्यालय में आय के, करे शांता काम ||


खेलों की सूची दिया, रूपा को समझाय |
दो घंटे का खेल हो, संध्या इन्हें जगाय ||


गौशाला से दूध का, भरके पात्र  मंगाय |
संध्या में कर वंदना, रोटी खीर जिमाय ||


सौजा दादी से कही,  एक कहानी रोज |
बच्चों को बतलाइये, रखिये दिन में खोज ||


राज-महल में शांता, बैठी ध्यान लगाय |
पावन मन्त्रों को जपे, दूरानुभूति आय ||


सृंगी के मस्तिष्क की, मिलती इन्हें तरंग ||
वार्ता होने लग पड़ी, रोमांचित हर अंग ||


सादर कर परनाम फिर, पूछी सब कुशलात ||
अंगदेश के बोलती, अपने सब हालात |


मिलता जब आशीष तो, जाय नेह में डूब |
बटुक परम भेजूं वहाँ, पढना चाहे खूब ||


स्वीकार करते ऋषी, करती ये अनुरोध |
एक शिक्षिका भेजिए, देवे  कन्या-बोध ||


माता खट-खट कर रहीं, ये बातों में लीन |
टूटा जो संपर्क तो,तड़पी जैसे  मीन ||


दालिम को जाकर मिली, अगले दिन समझाय |
परम बटुक गुरुकुल चले, हर्षित पढने जाय ||


वय है चौदह वर्ष की, पढने में था तेज |
आगे शिक्षा के लिए, रही शांता भेज ||


इक हफ्ते में आ गई, माँ का लेकर रूप |
नई शिक्षिका करे सब, शाळा के अनुरूप ||

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