जीवन की
सर्द और स्याह रातों में
भटकते भटकते आ पहुँचा था
तुम तक
उष्णता की चाह में
और तुम्हारी ऑच
जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह
जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को
लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता
और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
शायद ठोस और कठोर
होने तक या
उसके भी बाद
ऑच से जलकर
राख होने तक ?
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति , आभार.
जवाब देंहटाएंबढिया है
जवाब देंहटाएंरचना बहुत अच्छी लगी |बधाई |
जवाब देंहटाएंआशा
बहुत अच्छे भाव और संवेदना को जगाती कविता !
जवाब देंहटाएंएक भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता भाई,
जवाब देंहटाएंसाधुवाद स्वीकार कीजिए.
achhee rachnaa hai
जवाब देंहटाएंaapko
aur shukla ji ko badhaaee .
nisha ji
जवाब देंहटाएंS.N.shukla ji
mahendra srivastava ji
asha ji
santosh ji
arvind ji
dipak baba ji
danish ji
aap sab ka tahe dil se aabhar ki aapne samay nikalkar meri post ko pada.
isi tarah aashirwad banaaye rakhiyega.
punah aabhar
nisha ji
जवाब देंहटाएंS.N.shukla ji
mahendra srivastava ji
asha ji
santosh ji
arvind ji
dipak baba ji
danish ji
aap sab ka tahe dil se aabhar ki aapne samay nikalkar meri post ko pada.
isi tarah aashirwad banaaye rakhiyega.
punah aabhar
संवेदना जगाती बहुत सुंदर रचना,..बधाई ...
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट में स्वागत है....