एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

रविवार, 27 नवंबर 2011

भगवती शांता परम : सर्ग-4

भगवती शांता परम : सर्ग-4

   भाग-2
चिन्तित अवध
शान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |
कौशल्या परजा रही, गम-सागर में डूब ||

हद  से  होता  पार  जब, दोनों  का  अवसाद |
अंगदेश को चल पड़ें,  कभी कहीं अपवाद ||

चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |
दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||

हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |

हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |
कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||

संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |
कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||

बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||

यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||

अनुसुय्या आई महल, बसता जहाँ तनाव |
कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||

अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||

संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||

पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |
अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||

कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |
खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||

उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||

माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |
 कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल || 

घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |
 चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||


भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |
इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||

 भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |
रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||

संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||

मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |
स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||

कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध  |
कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||

रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |
जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||

चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |
सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||

कौशल्या की गोद के, सूख गए जो  फूल |
लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||

सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||

युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||

कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||

घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||

शांता बिन ये शादियाँ,  हो जाती नाकाम |
चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||

चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |
पूर्वकाल के पुण्य-तप,  राखें आँखें मीच ||

3 टिप्‍पणियां:

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-