एक सन्देश-

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शुक्रवार, 23 मार्च 2012

किया इक तुरंती अगर टिप्पणी

सही को सराहो बिराओ नहीं ।
विरुद-गीत भी व्यर्थ गाओ नहीं ।

किया इक तुरंती अगर टिप्पणी-
अनर्गल गलत भाव लाओ नहीं । 

करूँ भेद लिंगी धरम जाति ना 
खरी-खोटी यूँ तो सुनाओ नहीं ।

सुवन-टिप्पणी पर बड़े खुश दिखे 
मगर मित्र को तो भगाओ नहीं ।

टिप्पणी का जरा ब्लॉग देखो इधर-
रूठ कर इस तरह दूर जाओ नहीं ।। 

दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक 

रविवार, 4 मार्च 2012

जब मुँह पर खिला बसन्त --

जब मुँह पर खिला बसन्त --

बुरा न मानो होली है --
मूँग दले होरा भुने, उरद उरसिला कूट ।
पापड बेले अनवरत, खाय दूसरा लूट ।।
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLateYcQt2S3472cdcCSpVLylbEtNo_ku0iqrVjZ8662yhv7Xg6oBYmB7AR8uLM6Ez8ohqWrjmUqts8qF2FLeUr1ItnMRRFFpKyJcHXLZ5lb8Guxnk35tg00Mwt3wO8ysjWkCS3kWxiC0/s1600/100_4500.JPG
मालपुआ गुझिया मिली, मजेदार मधु स्वादु ।
स्वादु-धन्वा मन विकल, गुझरौटी कर जादु ।।
मन के लड्डू मन रहे,  लाल-पेर हो जाय ।
रंग बदलती आशिकी, झूठ सफ़ेद बनाय ।
भाँग खाय बौराय के,  खेलें सन्त-महन्त ।
नशा उतरते ही खिला, मुँह पर मियाँ बसन्त ।।
Rangoli design with diya in centre
होरा = चना का झाड़
उरसिला = चौड़ी छाती 
गुझिया = एक प्रकार की मिठाई 
गुझरौटी= नाभि के पास का भाग 
स्वादु-धन्वा = कामदेव
जब मुँह पर खिला बसन्त = डर जाना 

यह  भी  देखिये  

ताकें गोरी छोरियां--

 दोहे 
शिशिर जाय सिहराय के, आये कन्त बसन्त ।
अंग-अंग घूमे विकल, सेवक स्वामी सन्त ।

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6

भगवती शांता परम सर्ग-6

भाग-3
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||

ध्यान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||

नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||

मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||

व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||

सावन में पूरे  हुए,  पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||

कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||

ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||

करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव  |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||

आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||

मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना,  राखी का त्योहार ||

स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||

दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||


पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||


शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||


अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||

बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||

नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||

दस की बाला को सिखा,  निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||


वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||


बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||

सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||

इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||

बर्बादी खाद्यान  की, लो इकदम से रोक  | 
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||

और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||

गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||


कात्यायन  की वर्तिका,  में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, अति प्रभावी लेख ||


महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह-पूर्व निकाल ||

शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||

भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||

अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||

शाळा की चिंता लिए, दुरानुभूती साध |
सृंगी से करने लगी, चर्चा परम अगाध ||

विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||

 करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||

आचार्या प्रधान बन, लेत व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||

ब्रह्मावादिन आत्रेयी, करती अग्निहोत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||

साध्यवधू शांता करे, सृगेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6

भगवती शांता परम सर्ग-6

भाग-2
अंग-देश में अकाल 
एवं 
शाळा का हाल  
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||

झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||

खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||

जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||

अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
 नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||

शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||

शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||

भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||

कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||

कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||

अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||

धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||

कैकय का गेंहूँ वणिक,  बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||

अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||

लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||

किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||

लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||

शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||

कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||

सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||

भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||

शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||

तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||

रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||

शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||

शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
 मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||

कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||

जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||

बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||

गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||

हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ | 
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||


संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||

परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||

लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||


परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष || 


दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||

लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय  |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||

स्त्री-शिक्षा पर लिखा,  सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||

धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
   अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||

नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||

मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||

व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||

सावन में पूरे  हुए,  पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||

कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||

ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||

करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव  |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||

आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||

मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना,  राखी का त्योहार ||

स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||

बारह बालाएं गईं, हुईं जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||

नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||

सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||

इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||

बर्बादी खाद्यान  की, लो इकदम से रोक  | 
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||

राजा अब अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6

भगवती शांता परम सर्ग-6

भाग-2
अंग-देश में अकाल 
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||

झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||

खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||

जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||

अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
 नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||

शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||

शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||

भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||

कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||

कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||

अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||

धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||

कैकय का गेंहूँ वणिक,  बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||

अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||

लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||

किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||

लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||

शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||

कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||

सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||

भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||

शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||

तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||

रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||

शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||

शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
 मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||

कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||

जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||

बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||

गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||

हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ | 
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||


संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||

परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||

लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||

परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष || 

दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||

लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय  |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||

बुधवार, 30 नवंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6


भगवती शांता परम सर्ग-१  प्रस्तावना

भगवती शांता परम-सर्ग-२  शिशु-शांता 

भगवती शांता परम सर्ग-5

भाग - 1
कौशल्या कन्या पाठशाला 
अंगराज के स्वास्थ्य को, ढीला-ढाला पाय |
चम्पारानी की ख़ुशी, सारी गई बिलाय ||

शिक्षा पूरी कर चुके, अपने राजकुमार |
अस्त्र-शस्त्र सब शास्त्र में, पाया ज्ञान अपार ||

व्यवहार-कुशल नीतिज्ञ, वय अट्ठारह साल |
राजा चाहें सोम से, पद युवराज सँभाल ||

शांता आगे बढ़ करे, सारे मंगल कार्य |
बटुक परम साथे लगा, सेवे वह आचार्य ||

गुरुजन के सानिध्य में, उसको होता बोध |
दीदी से कहने लगा, दूर करें अवरोध ||

प्रारम्भिक शिक्षा हुई, थी शांता के संग |
पूरी शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||

सुनकर के अच्छा लगा,  देती आशीर्वाद |
सृन्गेश्वर भेजूं  तुझे, समारोप के बाद ||

आया उसको ख्याल इक, रखी बाँध के गाँठ |
कन्याशाला से बढ़ें, अंगदेश  के ठाठ ||

सोम बने युवराज तो, आया श्रावण मास |
सूत्र बांधती भ्रात को, बहनों का दिन ख़ास ||

आई श्रावण पूर्णिमा,  सूत्र बटुक को बाँध |
गई सोम को बाँधने, मन में निश्चित साँध ||

राज महल में यह प्रथम,  रक्षा बंधन पर्व |
सोम बने युवराज हैं, होय बहन को गर्व ||

चम्पारानी थी खड़ी, ले आँखों में प्यार |
शांता अपने भ्रातृ की, आरति रही उतार ||

रक्षाबंधन बाँध के, शांता बोली भाय |
मोती-माणिक राखिये, यह सब नहीं सुहाय ||

दीदी खातिर क्या करूँ, पूँछें जब युवराज |
कन्या-शाला दीजिये, सिद्ध कीजिये काज ||

बोले यह संभव नहीं, यह शिक्षा बेकार |
पढ़कर कन्या क्या करे, पाले-पोसे नार ||

कन्याएं बेकार में,  समय करेंगी व्यर्थ  ||
गृह कार्य सिखलाइये, शिक्षा का क्या अर्थ ||

माता ने झटपट किया, उनमे बीचबचाव  |
शिक्षित नारी से सधे, देश नगर घर गाँव ||

वेदों के विपरीत है, नारी शिक्षा बोल |
उद्दत होते सोम्पद, शालाएं मत खोल ||

बोली मैंने भी पढ़ी, शांता कर प्रतिवाद |
वेद-भाष्य रिस्य सृंग का, कोई नहीं विवाद ||

गौशाला को हम चले,  बाकी काम अनेक |
श्रावण बीता जाय पर, हुई न वर्षा एक ||

त्राहि-त्राहि परजा करे, आया अंग अकाल |
खेत धान के सूखते, ठाढ़े कई सवाल ||

गौशाला में आ रहा, बेबस गोधन खूब |
पानी जो बरसा नहीं, जाए जन मन ऊब ||

दूर दूर से आ रहे, गंगाजी के तीर ||
देखों उनकी दुर्दशा, करत घाव गंभीर ||

छोड़े अपने बैल सब, गाय देत गौशाल |
जोहर पोखर सूखते, बाढ़ा बड़ा बवाल ||

सब शिविरों में आ रहे, होता खाली कोष |
कन्या शाला के लिए, मत दे बहना दोष ||

इतने में दालिम दिखा, बोला जय युवराज |
मंत्री-परिषद् बैठती, कुछ आवश्यक काज ||

पढ़ चेहरे के भाव को, दालिम समझा बात ||
शांता बिटिया है दुखी, दुखी दीखती मात ||

दालिम से कहने लगी, परम बटुक की चाह |
पढने की इच्छा प्रबल, दीजे तनिक सलाह ||

जोड़-घटाना जानता, जाने वह इतिहास |
वह भी तो सेवक बने, मात-पिता जब दास ||

लगी कलेजे में यही,  उतरी गहरे जाय |
सोचें न उत्कर्ष की, शांता कस समझाय ||

दुखते दिल से पूछती, अच्छा कहिये तात |
राजमहल के चार कक्ष, इधर कहाँ इफरात ||

चम्पा-रानी भी कहें, हाँ दालिम हाँ बोल |
कन्या-शाला को सके, जिसमें बिटिया खोल ||

हाथ जोड़ करके कहे,  यहाँ नहीं अस्थान |
महल हमारा है बड़ा, मिला हमें जो दान ||

शांता उछली जोर से, हर्षित निकले चीख |
कन्या-शाला के लिए, मांगे शांता भीख ||

शर्मिंदा क्यूँ कर रहीं, हमको ख़ुशी अपार |
ठीक-ठाक करके रखूं, कल मैं कमरे चार ||

माता को लेकर मिली, गई पिता के कक्ष |
अपनी इच्छा को रखा, सुनी राजसी पक्ष ||

सैद्धांतिक सहमति मिली, सौ पण का अनुदान |
कौशल्या शाळा खुली, हो नारी उत्थान ||

दूर दूर के कारवाँ, उनके संग परिवार ||
रूपा शांता संग में,  करने गई प्रचार ||

रुढ़िवादियों ने वहाँ, पूरा किया विरोध |
कई प्रेम से मिल रहे, कई दिखाते क्रोध ||

घर में खाने को नहीं, भटक रहे हो तीर |
जाने कब दुर्भिक्ष में, छोड़े जान शरीर || 

नौ तक की कन्या यहाँ, छोडो मेरे पास |
भोज कराउंगी उन्हें,  पूरे ग्यारह मास ||


गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||


धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल,इच्छित मिलें पदार्थ ||

इंद्र-देवता करेंगे, खुश हो के बरसात |
 फिर कन्या ले जाइए, मान लीजिये बात ||

चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |
तेरह कन्यायें जमा, देती शाला खोल ||

एक कक्ष में दरी थी, उस पर चादर डाल |
तेरह बिस्तर की जगह, पंद्रह की तैयार ||


कक्ष दूसरा बन गया, फिर भोजन भंडार |
कार्यालय तीजा बना, कक्षा बनता चार ||


जिम्मेदारी भोज की, कौला  रही उठाय |
सौजा दादी बन गई, बच्चों की प्रिय धाय ||


शांता पहली शिक्षिका, रूपा का सहयोग |
तख्ती खड़िया बँट गई,जमा हुवे कुछ लोग ||


रानी माँ आकर करें, शाळा शुभ-आरम्भ |
आड़े पर आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||


नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |
आई रमणी रमण की, लगा रही खुद हाथ ||


पहले दिन की प्रार्थना, सादर शारद केर |
एकदन्त की विनय से, कटते बाधा-फेर ||


स्वस्थ बदन ही सह सके, सांसारिक सब भार |
बुद्धी भी निर्मल रहे, बढ़े सकल परिवार ||


रूपा के व्यायाम से, बच्चे थक के चूर ||
शुद्ध दूध मिलता उन्हें, घुघनी भी भरपूर ||


पहली कक्षा में करें, बच्चे कुछ अभ्यास ||
गोला रोटी सा करे, रेखा जैसे बांस ||


एक घरी अभ्यास कर, गिनती सीखे जांय ||
दस तक की गिनती गिनें, रूपा रही बताय ||


सृंगी के अभिलेख से, सीखी थी इक बात |
पारेन्द्रिय अभ्यास से, हुई स्वयं निष्णात ||


दोपहर में छुट्टी हुई, पंगत सभी लगाय |
हाथ-पैर मुंह धोय के, दाल-भात सब खाय ||


एक एक केला मिला, करते सब विश्राम |
कार्यालय में आय के, करे शांता काम ||


खेलों की सूची दिया, रूपा को समझाय |
दो घंटे का खेल हो, संध्या इन्हें जगाय ||


गौशाला से दूध का, भरके पात्र  मंगाय |
संध्या में कर वंदना, रोटी खीर जिमाय ||


सौजा दादी से कही,  एक कहानी रोज |
बच्चों को बतलाइये, रखिये दिन में खोज ||


राज-महल में शांता, बैठी ध्यान लगाय |
पावन मन्त्रों को जपे, दूरानुभूति आय ||


सृंगी के मस्तिष्क की, मिलती इन्हें तरंग ||
वार्ता होने लग पड़ी, रोमांचित हर अंग ||


सादर कर परनाम फिर, पूछी सब कुशलात ||
अंगदेश के बोलती, अपने सब हालात |


मिलता जब आशीष तो, जाय नेह में डूब |
बटुक परम भेजूं वहाँ, पढना चाहे खूब ||


स्वीकार करते ऋषी, करती ये अनुरोध |
एक शिक्षिका भेजिए, देवे  कन्या-बोध ||


माता खट-खट कर रहीं, ये बातों में लीन |
टूटा जो संपर्क तो,तड़पी जैसे  मीन ||


दालिम को जाकर मिली, अगले दिन समझाय |
परम बटुक गुरुकुल चले, हर्षित पढने जाय ||


वय है चौदह वर्ष की, पढने में था तेज |
आगे शिक्षा के लिए, रही शांता भेज ||


इक हफ्ते में आ गई, माँ का लेकर रूप |
नई शिक्षिका करे सब, शाळा के अनुरूप ||

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-5

भगवती शांता परम सर्ग-5

भाग-3
शांता और रिस्य-सृंग 
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हंसी ||

सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की  | 
सहा बड़ी तकलीफ, मगर बचाई जान सब ||

राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य ठीक करते उसे ||

हुआ रमण का व्याह, नई नवेली दुल्हनी |
पूरी होती चाह, महल एक सुन्दर मिला ||

रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
खुशियाँ पूरी छाय, पाले जग की परंपरा ||

मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
सृन्गेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||

शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||

दो रथ में सब बैठ, घोड़े भी संग में चले |
रही  शांता  ऐंठ, मेला  पूरा जो लगा ||

रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों  की आरेख, बेटे की  लागे भली ||

बेटा  भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, धीरे से निकले सभी ||

 नौकर-चाकर भेज, आगे आगे जा रहे |
 इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||

पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||

सुबह-सुबह अस्नान,  सप्त-पोखरों में करें |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||

रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||

तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||

गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||

ऋषिवर को परनाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||

हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||

पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, दुग्ध चढ़ाये विल्व पत्र ||

रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये  शिविर ||

गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||

बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
बैठा साथे सोम, विविन्डक ऋषिराज के ||

संध्या  सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||

अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||

लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||

खट-पट करे खिडाव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||

शांता शान्ति छोड़, असमंजस में जा पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, करती है प्रणाम फिर ||

मैं सृंगी हूँ जान, ऋषी राज के पुत्र को |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||

मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||

पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी है बड़ी ||

कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रात दिन |
पूरे  कौन  सवाल, दुनिया के फिर करेगा ||

बदले दृष्टिकोण, रिस्य सृंग का प्रवचन |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ प्रणाम कर ||

लौटी रूपा देख, बढे सृंग आश्रम गए | 
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||

लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||

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