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गुरुवार, 28 मई 2020

उखड़ते स्वर

है ढीले तन के  पड़े तार ,क्या साज़ सजाये साजिंदा  
बेसुरी जिंदगी जीनी है ,जब तकअब रहते है जिंदा

अब खनक स्वरों में बची नहीं ,सारेगामा ,ग़मगीन हुआ
लम्बे आलाप ले सकने का ,सब जोश एकदम क्षीण हुआ
अब  हुई ढोलकी भी ढीली, तबले में भी ,दमखम न बचा
ऐसे में कभी जुगलबंदी का ले ना सकते ,तनिक मज़ा
लें तान ,टूटती सांस ,स्वयं ,होते है खुद पर शर्मिन्दा
बेसुरी जिंदगी जीनी है ,अब जब तक भी है  जिन्दा

ये दौर उमर का भूल गया ,तकतकधिनधिन तकतकधिनधिन
अब मालकोष का गया जोश ,और भीमपलासी  ना मुमकिन
अब राग भैरवी से ही बस ; मन को बहलाना पड़ता है  
टूटे दिल के अरमानो को ,बस यूं ही  सहलाना  पड़ता है  
क्या पता तोड़ तन का पिंजरा ,कब उड़ जाए प्राण परिंदा
बेसुरी जिंदगी जीनी है ,अब जब तक रहते है जिन्दा

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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