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सोमवार, 18 मई 2020

प्रवासी मजदूर -आत्मकथ्य

आये थे शहर ,करने को गुजर ,
लेकिन अब हम पछताते  है
ये चमक दमक, सारी  रौनक ,
कुछ दिन तो बहुत सुहाते है
 आफत  मारे ,हम बेचारे ,
तकलीफ हजारों पाते है
अब  कोरोना ,का ये रोना ,
घर बंद ,निकल ना पाते है
ये बिमारी ,मुश्किल भारी ,
कुछ भी तो कमा ना पाते है
खा गए बचत, टूटी हिम्मत ,
अब पेट नहीं भर पाते है
रेलें न बसें ,हम कहाँ फंसे ,
पैदल निकले ,दुःख पाते है
रोटी के लिए घर छोड़ा था ,
रोटी के लिए घर जाते है

मदन मोहन बाहेती  'घोटू '

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