बुढ़ापे की गाड़ी
उमर धीरे-धीरे ढली जा रही है
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है
चरम चूं,चरम चूं , कभी चरमराती
चलती है रुक-रुक, कभी डगमगाती
पुरानी है, पहिए भी ढीले पड़े हैं
रास्ते में पत्थर भी बिखरे पड़े हैं
कभी दचके खाकर, संभल मुस्कुराकर
पल-पल वह आगे बढ़ी जा रही है
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है
कहीं पर रुकावट ,कहीं पर थकावट
कभी आने लगती जब मंजिल की आहट
घुमड़ती है बदली मगर न बरसती
मन के मृग की तृष्णा सदा ही तरसती
कभी ख्वाब जन्नत की मुझको दिखा कर
मेरी आस्थाएं छली जा रही है
बुढ़ापे की गाड़ी चली जा रही है
मदन मोहन बाहेती घोटू
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