बदलते रहते है मौसम,कभी गर्मी, कभी पतझड़ ,
किसी का भी समय हरदम ,एक जैसा नहीं रहता
कभी किसलय बने पत्ता ,साथ लहराता हवा के ,
सूख जाता कभी झड़ कर ,जुदाई का दर्द सहता
झड़े पतझड़ में जो पत्ते,पड़े देखो जो जमीं पर,
भूल कर भी नहीं चलना कभी भी उनको कुचल तुम
क्योंकि इन पत्तों ने ही तो,तुम्हे शीतल छाँव दी थी,
धूप की जब जब तपन से,परेशां थे हुए जल तुम
समय का ही फेर है ये,डाल से टूटे पड़े ये ,
नहीं तो एक दिन निराली,कभी इनकी शान रहती
नहीं पत्ता कोई हरदम ,डाल से रहता चिपक कर ,
सूख झड़ जाना हवा से ,है हरेक पत्ते की नियति
तुम्हारे माता पिता भी,इन्ही पत्तों की तरह है ,
बचाया हर मुसीबत से,हमेशा थी छाँव जिनकी
हो गए जो आज बूढ़े ,उम्र पतझड़ में गए झड़ ,
कर अनादर,कुचलना मत ,भावनाएं कभी इनकी
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।