एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

विरह विरह बहु अंतरा 

शादी के बाद 
जब आती है अपने मम्मी पापा की याद 
और बीबियां मइके चली जाती है 
पर सच,दिल को बड़ा तड़फाती है 
रह रह कर आता है याद 
वो मधुर मिलन का स्वाद 
जो वो हमे चखा जाती है 
रातों की नींद उड़ा जाती है 
उचटा उचटा रहता है मन 
याद आतें है मधुर मिलन के वो क्षण 
दिन भर जी रहता है अनमना 
और जीवन में पहली बार ,
हमें सताती है विरह की वेदना 
फिर नौकरी के चक्कर में 
कईबार आदमी नहीं रह पाता है घर में 
और क्योंकि बच्चों के स्कूल चलते रहते है 
पत्नी घर पर रहती है और हम ,
मजबूरी वश बाहर रहते है 
बीबी बच्चों को अकेला छोड़ते है 
और सटरडे ,सन्डे की छुट्टी में ,
सीधे घर दौड़ते है 
मजबूरी ,हमे वीकएंड हसबैंड देती है बना 
और जीवन में दूसरी बार ,
हमे झेलनी पड़ती है विरह की वेदना 
और फिर जब कोई बच्चा बड़ा हो जाता है 
पढ़लिख अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है 
विदेश में नौकरी कर ,अच्छा कमाता है 
हमारा सीना गर्व से फूल जाता है 
तो मन में भर कर बड़ा उत्साह 
हम कर देतें है उसका विवाह 
वो बसा लेते है विदेश में अपना घरबार 
और मिलने आजाते है कभी कभार 
पर जब हो जाते है बहू के पैर  भारी 
तब उसका ख्याल रखने
 और करने जजकी की तैयारी 
बहूबेटे को अम्मा की याद आती है 
और हमारी बीबीजी ,विदेश बुलवाई जाती है 
तब हमे जीवन में तीसरी बार 
विरह की पीड़ा का होता है साक्षात्कार 
क्योंकि हम होते है कई परिस्तिथियों पर निर्भर 
दोनों एकसाथ नहीं छोड़ सकते है घर 
कभी नौकरी में छुट्टी नहीं मिलती है 
कभी दुसरे बच्चों की पढाई चलती है 
रिटायर हो तो भी ढेर सारी 
आदमी पर होती है जिम्मेदारी 
तो भले ही मन पर लगती है ठेस 
पत्नी को अकेले भेजना पड़ता है विदेश 
बढ़ती उमर में उसकी इतनी आदत पड़ जाती है 
कि हरपल ,हरक्षण वो याद आती है 
वो उधर पूरा करती है अपना दादी बनने का चाव 
इधर हम सहते है विरह की पीड़ा के घाव 
फोन पर बात कर मन को बहला लेते है 
अपने दुखते दिल को सहला लेते है 
जवानी की विरह पीड़ाएँ तो जैसे तैसे सहली जाती है 
पर बुढ़ापे में बीबी से जुदाई,बड़ा जुलम ढाती है 
क्योंकि इस उमर में आदमी ,
पत्नी पर इतना निर्भर हो जाता है 
कि उसके बिना जिंदगी जीना दुर्भर हो जाता है 
एक दुसरे की कमी हमेशा खलती रहती है 
पर जीवन की गाडी,ऐसे ही चलती रहती है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-