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रविवार, 16 अक्टूबर 2011

दूरियॉ

वर्ष 1985 के लगभग लिखी निम्न पंक्तियों को आपके साथ साझा कर रहा हूँ
विकास के युग में माना घट गयी हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की अब बढ गयी हैं दूरियॉ ।।
सूर्य का गोला लटकता है हर इक छत से जरूर ।
किन्तु इतने पास अब रहते नहीं है दिल हुजूर ।।
चॉद तक जाने लगे हैं यान माना बेलगाम ।
पर धरा के चॉद का अब रह गया है सिर्फ नाम ।।
संसार आकर है सिमटता हर सुबह इस मेज पर ।
क्या हुआ अपने बगल में जानेंगे पढकर खबर ।।
शोर पुर्जों का हुआ है इस कदर कुछ बेअदब ।
पंछियों का मधुर कलरव खो गया इसमें अजब ।।
अब धरा लगती खिलौना यूँ सहज हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की पर बढ गयी हैं दूरियॉ।।

10 टिप्‍पणियां:

  1. भाई कुछ edit की जरुरत है |

    खुबसूरत प्रस्तुति ||

    बधाई ||

    जवाब देंहटाएं
  2. रविकर जी
    मुझे प्रसन्नता होगी यदि आप इसमें आवष्यक
    संशोधन कर देगे
    आभारी रहूँगा

    जवाब देंहटाएं
  3. संशोहन की कोई आवश्यकता नही है । दिल की बात समझ में आ गई यही काफी है । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद .

    जवाब देंहटाएं
  4. नीचे से चौथी पंक्ति में अभी भी जरुरत है |

    प्रिंटिग की तरफ इशारा है मेरा ||
    कोई काव्यात्मक या भावनात्मक कमी नहीं है ||

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह अशोक जी, क्या बात कही, "क्या हुया अपने बगल में जानेंगे पढ़कर खबर"
    My Blog: Life is Just a Life
    My Blog: My Clicks
    .

    जवाब देंहटाएं
  6. तब की लिखी एक बेहतरीन रचना

    जवाब देंहटाएं

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