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रविवार, 6 नवंबर 2011

लेपटोप क्या आया घर में----

लेपटोप क्या आया घर में----
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लेपटोप क्या आया घर में,जैसे  सौत आ गयी मेरी
दिन भर साथ लिए फिरते हो,करते रहते छेड़ा छेड़ी
एक ज़माना था जब मेरी,आँखों में दुनिया दिखती थी
कलम हाथ में  थाम उंगलियाँ,प्यारे प्रेमपत्र लिखती थी
अब तो लेपटोप परदे पर,नज़रें रहती गढ़ी तुम्हारी 
छेड़ छाड़ 'की पेड'बटन से,उंगली करती रहे  तुम्हारी
अब मुझको तुम ना सहलाते,अब तुम सहलाते हो कर्सर
लेपटोप को गोदी में ले,बैठे ही    रहते  हो     अक्सर
कभी कभी तो उसके संग ही , लेटे काम किया करते हो
'मेल' भेजते,'चेटिंग','ट्विटीग' ,सुबहो- शाम किया करते हो
रोज 'फेस बुक' पर तुम जाने किस किस के चेहरे हो ताको
और खोल कर के' विंडो 'को,जाने कहाँ कहाँ तुम झांको
कंप्यूटर था,तो दूरी थी,ये तो मुआ रहे है चिपका
करते रहते 'याहू याहू',फोटो देखो हो किस किस का
मेरे लिए जरा ना टाइम ,दिन है सूना,रात अँधेरी
लेपटोप क्या आया घर में,जैसे सौत आ गयी मेरी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 5 नवंबर 2011

वो




आंचती हुई काजल को
वो कैसे मुस्कुरा रही है |,

लुफ्त उठा जीवन का
मोहब्बत की झनकार में
अपनी धुन में मस्त उसकी
पायलियाँ गीत गा रही हैं |

केशो को सवारकर 
चुनरी ओढ़ वो घूँघट में
लज्जा से सरमा रही है |

साज सज्जा से हो तैयार
खुद को निहार आइने में
नजरे झुका और उठा रही है |

इंतज़ार में मेरे वो सजके
भग्न झरोखे में छिपकर
मेरा रास्ता ताक रही है |

- दीप्ति शर्मा 

ऊनी कपड़ों वाला बक्सा

ऊनी कपड़ों  वाला बक्सा
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सर्दी का मौसम आया तो मैंने खोला,
बक्सा ऊनी  कपड़ों वाला
जो पिछले कितने महीनों से,
घर के एक सूने कोने में,
लावारिस सा पड़ा हुआ था,
हम लोग भी कितने प्रेक्टिकल होते है
जरुरत पड़ने पर ही किसी को याद करते है,
वर्ना,उपेक्षित सा छोड़ देते है
बक्से को खोलते ही,
फिनाईल  की खुशबू के साथ,
यादों का एक भभका आया
मैंने देखा ,फिनाईल की गोलिया,
जब मैंने रखी थी ,पूरी जवान थी,
पर मेरे कपड़ों को सहेजते ,सहेजते,
बुजुर्गों की तरह ,कितनी क्षीण हो गयी है
सबसे पहले मेरी नज़र पड़ी,
अपने उस पुराने सूट पर, 
जिसे मैंने अपनी शादी पर  पहना था,
और  शादी की सुनहरी यादों की तरह,
सहेज कर रखा था
मुझे याद  आया,जब तुमने पहली बार,
अपना सर मेरे कन्धों पर रखा था,
मैंने ये सूट पहन रखा था
मैंने इस सूट को,हलके से सहलाया,
और कोशिश की ढूँढने की,
तुम्हारे उन होठों  के निशानों को,
जो तुमने इस पर अंकित किये थे,
पिछले कई वर्षों से,
इसे पहन नहीं पा रहा हूँ,
क्योंकि सूट छोटा हो गया है,
पर हकीकत में,सूट तो वही है,
मै मोटा हो गया हूँ,
क्योंकि कपडे नहीं बदलते,
आदमी बदल जाता है
फिर निकला वह बंद गले वाला स्वेटर,
जिसे उलटे सीधे फंदे डाल,
तुमने  बड़े प्यार से बुना था,
और जिसे पहनने पर लगता था,
की तुमने अपने बाहुपाश मै,
कस कर जकड  लिया हो,
इस बार उस स्वेटर के  कुछ फंदे,
उधड़ते से नज़र आये
फिर दिखी शाल,
देख कर लगा,जैसे रिश्तों की चादर पर,
शक  के कीड़ों ने,
जगह जगह छेद कर दिए है,
मन मै उभर आई,
जीवन की कई ,खट्टी मीठी यादें,
भले बुरे लोग,
सर्द गरम दिन,
बनते बिगड़ते रिश्ते
फिर मैंने सभी ऊनी कपड़ों को,
धूप में फैला दिया,इस आशा से कि,
सूरज कि उष्मा से,
शायद इनमे फिर से,
नवजीवन का संचार हो जाये
मै हर साल  जब भी,
ऊनी कपड़ों का बक्सा खोलता हूँ,
चंद पल,पुरानी यादों को जी लेता हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

वह युग 'ऐ जी'ओ जी' वाला

अब भी मुझे याद आता है,वह युग 'ऐ जी'ओ जी' वाला
पश्चिम की संस्कृती ने आकर,सब व्यवहार बदल ही डाला
जब सर ढके पत्नियाँ घर में,पति का नाम नहीं लेती थी
अजी सुनो पप्पू के पापा,या चूड़ी खनका  देती थी
कभी बुलाना हो जो पति को,कमरे की सांकल खटकाना
कभी कोई आ जाये अचानक,शर्मा कर झट से हट जाना
चंदा से मुखड़े को ढक कर,दिन भर घूंघट करके रहना
कितना प्यारा ,मनभाता था,उनका 'ऐ जी'ओ जी'कहना
ले लेने से नाम पति का,उमर पति की कम होती थी
तब पति पत्नी के रिश्ते में,थोड़ी झिझक,शरम होती थी
घर के बूढ़े बड़े बैठ कर,कर देते थे रिश्ता पक्का
पहली बार सुहागरात में,मुंह दिखता था,पति पत्नी का
कैसा होगा जीवन साथी,मन में कितना 'थ्रिल 'होता था
मुंह दिखाई से मन रोमांचित,प्रथम बार जब मिल होता था
इस युग में,शादी से पहले,मिलना जुलना  अब होता है
होती रहती डेटिंग वेटिंग,पिक्चर विक्चर  सब होता है
हनीमून हिल स्टेशन पर,घूंघट,मुंह दिखाई सब गायब
जींस और टी शर्ट पहन कर,नव दम्पति घूमा करते अब
एक दूजे को ,प्रथम  नाम से ,पति पत्नी है अब पुकारते
गया  ज़माना,'सुनते हो जी',का पुकारना बड़े  प्यार से
लेकर नाम बुलाने का तो, होता है अधिकार सभी का
पर 'ऐ जी'ओ जी'कहने का,हक़ था केवल पति पत्नी का
रहन सहन सब बदल गया है,इस युग का है चलन निराला
अब भी मुझे याद आता है,वह युग 'ऐ जी'ओ जी' वाला

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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बुधवार, 2 नवंबर 2011

तुम्म्हारी आँच

जीवन की
सर्द और स्याह रातों में
भटकते भटकते आ पहुँचा था
तुम तक
उष्णता की चाह में
और तुम्हारी ऑच
जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह
जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को
लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता
और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
शायद ठोस और कठोर
होने तक या
उसके भी बाद
ऑच से जलकर
राख होने तक ?

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