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शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

चना -बिना

         चना -बिना

जरा सोचो ,खुदा  ने गर,उगाया ना चना  होता
हमारा फिर तो जीवन ये ,एक फीकी दास्ताँ होता
पकोड़े ,प्याज या आलू के ,खाने को नहीं मिलते ,
तो फिर बारिश के मौसम का ,मज़ा ही बोलो क्या होता
न मोतीचूर के लड्डू ,न बूंदी ,चक्की बेसन की ,
ना तली दाल ,भुजिया ,सेव, खाना बे मज़ा   होता
न बनते ढोकले ,ना गाठिये ,ना फाफड़े कोई ,
बिना इनके ,भला गुजरातियों का खाना क्या होता
पकोड़े ब्रेड के या फिर,बडा और पाँव ना बनता ,
न चीले बेसनी ,फीका बड़ा ही नाश्ता  होता
न बनती फिर कड़ी कोई,न बेसन गट्टे बन पाते ,
न पूरण पोलियों का जायका ,हमको मिला होता
भुने हम भूंगडे खाकर,मिटा निज भूख लेते है ,
हमें ना गर्मियों में स्वाद  ,सत्तू का मिला होता
न बेसन और हल्दी में .मिला कर के मलाई को
बना उबटन हसीनो ने ,बदन अपना मला होता
चने के झाड पर हमने ,चढ़ा डाला चने को है ,
हाल फिर घर की मुर्गी का ,नहीं फिर दाल सा होता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

जीवन यात्रा

        जीवन यात्रा

ये जीवन तो क्षण भंगुर है ,एक बुलबुला है पानी का
टेड़ा मेडा ,ऊबड़ खाबड़ ,ये रास्ता है ,जिंदगानी  का
पग पग पर आती बाधाएं,बिखरे पड़े राह में  कांटे
हरियाली है ,धूप कहीं है ,कहीं मरुधर  के सन्नाटे
मंजिल का कुछ पता नहीं है ,पथिक भटकता ,आगे बढ़ता
सफ़र कहाँ पर,कब रुक जाए ,कभी किसी को पता न चलता 
बारिश कभी,कभी ओले है ,कभी शीत की चुभती ठिठुरन
कभी थपेड़े ,गर्म हवा के ,सूर्य  तपिश से जल जाता तन
एक तो जीवन पथ ही दुर्गम,उस पर मौसम तुम्हे सताता
बदला करती परिस्तिथियाँ ,और सुख दुःख है आता ,जाता
बिना डिगे जो चलता रहता ,बढ़ता रहता धीरज धर  कर
 निश्चित उसे सफलता मिलती ,और पहुँच जाता मंजिल पर
मिले हमसफ़र ,साथ निभाता ,होता अंत परेशानी का
ये जीवन तो क्षण भंगुर है ,एक बुलबुला है  पानी का

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



आशा-निराशा

    आशा-निराशा

भरी बारिश में उनके घर
गए हम आस ये ले कर
मज़ा बारिश का  आयेगा
                    पकोड़े  जा के खायेंगे
मगर जब हम वहां  पहुंचे
वहां थे  चल रहे  रोज़े
नहीं सोचा था ये दिन भर ,
                      कि  हम  कुछ  खा न पायेंगे
आदमी चाहता है कुछ
मगर होता है उल्टा कुछ
कि किस्मत की पहेली ये,
                      कभी सुलझा न पायेंगे
चबा सकते थे जब खाना
नहीं था पास में खाना
मिला खाना गिरे सब दांत ,
                         अब कैसे  चबायेंगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

चुनाव का अधिकार

          चुनाव का अधिकार

बचपन से ,जब से मुझ में ,
थोड़ी समझ और होंश आया है
मैंने अपने आप को ,
चुनाव के चक्कर में ही पाया है
सबसे पहले ,मेरे दाखिले के लिए ,
नर्सरी स्कूल का चुनाव किया गया
 इस दाखिले में ,मेरा कुछ भी दखल नहीं था ,
क्योंकि स्कूल का चुनाव पिताजी ने था किया
पर धीरे धीरे ,जब मै बड़ा होने लगा ,
मेरी चुनने की प्रवृत्ति रंग लाने लगी
खाने पीने में पसंद की चीज चुनना,
अच्छे बुरे दोस्त चुनना ,
पहनने के वस्त्र चुनना ,
इन सभी बातों में मेरे चुनाव को,
तबज्जो दी जाने लगी
और बड़ा होने पर इस बार ,
कौनसे कोलेज में जाऊं ,
कौनसा प्रोफेशन अपनाऊ
किसे अपनी गर्ल फ्रेंड बनाऊ
मेरे हाथ में आ गया था
ये सब चुनाव करने का अधिकार
इम्तिहान में पास होने पर ,
कई जगह अप्लाय किया ,
कई इंटरव्यूह  दिए
और चुनाव प्रक्रिया झेलनी पडी
तब कहीं नसीब हुई ,एक अच्छी नौकरी
फिर चला जीवनसाथी के चुनाव का चक्कर
लड़कियां देखी दर्जन भर
तब कहीं कोई पसंद आई
जिसके साथ मैंने शादी रचाई
जैसे जैसे बसता गया मेरा घर संसार
वैसे वैसे मै खोता गया ,अपना चुनाव का अधिकार
क्योंकि अब मेरी कम,मेरी बीबी की ज्यादा चलती है
अब मेरे लिए हर चीज मेरी बीबी चुनती है
आजकल चुनाव के मामले में ,ये बन्दा बेकार है
क्योकि हर चीज चुनने का पत्नीजी को अधिकार है
अब तो बस ,जब पांच साल में ,आम चुनाव आता है
देश का नेता चुनने में,ये बंदा  हाथ बटाता है
ये चुनाव का चक्कर भी अजीब है  होता
बच्चे को माँ बाप चुनने का हक़ तो नहीं होता
पर जन्म के बाद और शादी के पहले ,
हर चुनाव में उसकी चलती है
पर शादी के बाद ,चुनाव के मामले में,
उसकी दाल नहीं गलती है
क्योंकि उसको रोज रोज की लड़ाई
या घर की शांति  के बीच,
एक चीज का चुनाव करना पड़ता अक्सर  है
और रोज की लड़ाई के बदले ,बीबी की बात मान,
घर की शांति चुनना ही बेहतर है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

लुटियन की दिल्ली

  लुटियन की दिल्ली

ये दिल्ली तो है लुटियन की ,जी चाहे लूट लो उतना ,
यहाँ पर तो लुटेरों की ,बहुत ही भीड़ रहती है
ये तो एक डाइनिंग टेबल है ,जो जी में आये ,वो खाओ ,
परसने ,खानेवाले चमचों की भी भीड़ रहती है
ये पार्लियामेंट की बिल्डिंग ,बनायी गोल उनने है,
इसलिए गोलमालों की ,यहाँ भरमार रहती है ,
ये  दिल्ली है,ओपोजिट पार्टियाँ भी ,दिल मिला कर के,
यहाँ पर सत्ता करने को ,सदा तैयार  रहती है
घोटू  

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