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बुधवार, 6 मार्च 2013

होली के रंग-बुजुर्गों के संग

      होली के रंग-बुजुर्गों के संग


हम बुजुर्ग है ,एकाकी है

पर अब भी उमंग बाकी है

हंसी खुशी से हम जियेंगे,

जब तक ये जीवन बाकी है

अपनों ने दिल तोडा तो क्या ,

हमउम्रों का संग बाकी है

बहुत लड़ लिए हम जीवन में,

 अब ना कोई जंग बाकी है

मस्ती में बाकी का जीवन,

जी लेने के ढंग बाकी है

आओ मौज मनाये मिलकर ,

होली वाले रंग बाकी है

ऐसे होली रंग में भीजें,

सूखा कोई न अंग बाकी है


मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 4 मार्च 2013

व्यथा कथा

          घोटू के पद             
          व्यथा कथा 
प्रीतम,तुम जागो मै सोऊँ 
अपनी प्रीत गजब की ऐसी  ,खुश होऊँ या रोऊँ
तुम खर खर खर्राटे भरती ,मै सपनो में खोऊँ
थकी रात को तुम जब आती,काम काज निपटा कर
इधर लिपटती ,निंदिया मुझसे ,मुझे अकेला पाकर
तुम भी सोता देख चैन से ,मुझको नहीं सताती
अपना पस्त शरीर लिए तुम,करवट ले सो जाती
और सुबह चालू  हो जाता,रोज रोज  का चक्कर
काम काज में तुम लग जाती,और मै जाता दफ्तर
कोई न कोई आये सन्डे को,मै कैसे खुश होऊँ
प्रीतम ,तुम जागो मै सोऊँ
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 2 मार्च 2013

मै और मेरी मुनिया

        मै और मेरी मुनिया

तुम कहते हो बड़े गर्व से ,
                         मै  अच्छा और मेरी मुनिया
कोई की परवाह नहीं है ,
                         कैसे,क्या कर लेगी दुनिया 
पैसा नहीं सभी कुछ जग में ,
                       ना आटा ,या मिर्ची ,धनिया
सबका अपना अपना जीवन,
                       राजा ,रंक ,पुजारी,बनिया  
कोई भीड़ में  नहीं सुनेगा,
                       रहो बजाते,तुम  टुनटुनिया 
उतने दिन अंधियारा रहता ,
                        जितने दिन रहती चांदनियां
तन रुई फोहे सा बिखरे ,
                        धुनकी जब धुनकेगा  धुनिया  
ये मुनिया भी साथ न देगी,
                         जिस दिन तुम छोड़ोगे दुनिया

मदन मोहन बहेती'घोटू'

छलनी छलनी बदन

        छलनी छलनी बदन

थे नवद्वार,घाव  अब इतने ,मेरे मन को भेद हो गये
रोम रोम हो गया छिद्रमय ,तन पर इतने छेद हो गये
कुछ अपनों कुछ बेगानों ने ,
                                 बार बार और बात बात पर
मुझ पर बहुत चुभोये खंजर,
                                 कभी घात और प्रतिघात कर
क्या बतलाएं,इन घावों ने ,
                                 कितनी पीड़ा पहुंचाई है
अपनों के ही तीर झेलना ,
                                  होता कितना दुखदायी है
भीष्म पितामह से ,शरशैया ,
                                  पर लेटे है ,दर्द छिपाये 
अब तो बस ये इन्तजार है,
                                 ऋतू बदले,उत्तरायण आये
  अपना वचन निभाने खातिर ,हम तो मटियामेट  हो गये
 रोम रोम होगया छिद्रमय  ,तन पर इतने छेद   हो गये
शायद परेशान वो होगा ,
                                जब उसने तकदीर लिखी थी
सुख लिखना ही भूल गया वो ,
                                बात बात पर पीर लिखी थी
लेकिन हम भी धीरे धीरे ,
                                पीड़ा के अभ्यस्त  हो गये
जैसा जीवन दिया विधि ने,
                                 वो जीने में व्यस्त हो गये
लेकिन लोग बाज ना आये ,
                              बदन कर दिया ,छलनी छलनी 
पता न कैसे पार करेंगे ,
                              हम ये जीवन की बेतरणी 
डर है नैया डूब न जाये ,इसमें इतने छेद  हो गये
रोम रोम हो गया छिद्रमय,तन पर इतने छेद हो गये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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