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शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

पढ़ना था मुझे


पढ़ना था मुझे पर पढ़ न पाई,

सपनों को अपने सच कर ना पाई;

रह गए अधूरे हर अरमान मेरे,
बदनसीबी की लकीर मेरे माथे पे छाई |

खेलने की उम्र में कमाना है पड़ा,
झाड़ू-पोंछा हाथों से लगाना है पड़ा;
घर-बाहर कर काम हुआ है गुज़ारा,
इच्छाओं को अपनी खुद जलाना है पड़ा |

एक अनाथ ने कब कभी नसीब है पाया,
किताबों की जगह हाथों झाड़ू है आया;
सरकारी वादे तो दफ्तरों तक हैं बस,
कष्टों में भी अब मुसकुराना है आया |

नियति मेरी यूं ही दर-दर है भटकना,
झाड़ू-पोंछा, बर्तन अब मजबूरी है करना;
हालात मेरे शायद न सुधरने हैं वाले,
अच्छे रहन-सहन और किताबों को तरसना |

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