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शनिवार, 29 जुलाई 2017

मटर पनीर 

मैं ,फटे हुए दूध सा ,
दबाया गया ,रसविहीन ,
टुकड़ों में काटा गया पनीर 
तुम ,हरी भरी,गठीली ,
गोलमोल मटर के दानो सी ,
मटरगश्ती करती हुई ,अधीर 
टमाटर की ग्रेवी की तरह ,
लिए हुवे लाली 
यौवन से भरी,मतवाली 
गृहस्थी की कढ़ाई में ,हमारा मिलन 
आपसी नोकझोंक वाली छौंक से ,
मसालेदार हुआ हमारा वैवाहिक जीवन 
आज सुखी है,आबाद है 
उसमे। मटर पनीर वाला स्वाद है 

घोटू 
घर या घरौंदा 

हमें याद आते है वो दिन 
जब जिंदगी के शुरुवाती सफर में 
रहा करते थे हम ,किराये के एक घर में 
तब मन में एक सपना होता था ,
कि कभी ऐसे दिन भी  आएंगे 
जब हम अपना खुदका एक घर बनाएंगे 
और उसे मन मुताबिक़ सजायेंगे 
सबका अपना अपना कमरा होगा 
पूरा घर रौनक से भरा होगा 
और पूरा करने अपना यही ख्वाब 
काम में जुटे रहे दिनरात 
और फिर एक दिन ऐसा भी आया 
जब हमने अपना घर बनाया 
पर तब तक बच्चे ,पढ़ाई के चक्कर में 
रहने लगे हॉस्टल में 
कभी कभी होली दिवाली आते थे 
खुशियों की महक फैलाते थे 
एक भरे पुरे घर का अहसास कराते थे 
और फिर कुछ दिनों में चले जाते थे 
फिर बेटी की शादी हो गयी 
वो अपने ससुराल चली गयी 
बेटों ने विदेशो में जॉब पा लिया 
और वहीँ पर अपना घरसंसार बसा लिया 
और हमारा बड़े अरमान से बनाया,आशियाना 
हो गया  वीराना 
अब उसमे मैं और मेरी पत्नी ,
जब अकेले में काट रहे अपना बुढ़ापा है 
हमें वो किरायेवाला मकान बहुत याद आता है 
जब उस छोटे से घर में ,
चहल पहल और रौनक रहती थी 
खुशियों की गंगा बहती थी 
तब किराये का ही सही ,
वो घर ,घर लगता था ,
और आज ,
जब खुद का इतना बड़ा बंगला है 
पर तन्हाई में लगता एक जंगला है 
जिसमे मैं और मेरी पत्नी ,
कैदी की तरह एक दुसरे की सुनते रहते है 
अपने बड़े अरमान से बुने हुए सपनो को ,
उधेड़ते और फिर से  बुनते रहते है 
हमारे दिल की तरह ,पूरा घर सूना पड़ा है 
कई बार लगता है ,
घर नहीं,एक घरौंदा खड़ा है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
चूना 

१ 
दीवारों पर लग कर मैं दीवारें सजाता हूँ 
लगता हूँ पान में तो होठों को रचाता हूँ 
कोशिशें करता हूँ जो उनको निखारने की,
उनको ये शिकायत है ,मैं चूना लगाता हूँ 
२ 
चूने की दीवारों पर ,जब चूना लगता है ,
तो उनकी रौनक फिर ,और भी निखरती है 
रूप कातिलाना है ,सुन्दर और सुहाना है,
लगती है जालिम जब,सजती  संवरती  है 
मोती सी झलकाती,दन्तलड़ी मुस्काती ,
देखने वालों पर,बिजलियाँ  गिरती है 
सोने सा अंग अंग,भर जाता नया रंग ,
जब थोड़ा अलसा वो ,अंगड़ाई भरती है 

घोटू 
सबकी नियति 

इतने अंडे देख रहे तुम,कोई कब तक मुस्काएगा 
नियति एक ,टूटना सबको,हर अंडा  तोडा जाएगा 
कोई यूं ही ,चोंटें खा खा ,करके चम्मच की टूटेगा 
उसे दूध में मिला कोई ,ताक़त पाने का ,सुख लूटेगा 
डूबा गरम गरम पानी में ,कोई अंडा ,जाए उबाला 
और तोड़ कर,उसे काट कर ,खाया जाए वो बेचारा 
कोई तोड़ कर ,फेंटा जाता ,गरम तवे पर जब बिछ जाता 
तो प्यारा सा ,आमलेट बन,ब्रेकफास्ट में ,खाया जाता 
कुछ किस्मतवाले ,तोड़े भी जाते ,फेंटे भी जाते  है 
मैदे में मिल, ओवन में पक ,रूप केक का वो पाते है 
उन्हें क्रीम से ,सजा धजा कर ,सुन्दर रूप दिया जाता है 
मगर किसी के ,जन्म दिवस पर ,उसको भी काटा जाता है 
टुकड़े टुकड़े खाया जाता ,मुंह पर कभी मल दिया जाता 
किसी सुंदरी ,के गालों का ,पा स्पर्श,बहुत इतराता 
सबकी अपनी अपनी किस्मत,मगर टूटना सबको पड़ता 
कोई ओवन,कोई तवे पर ,और पानी में कोई उबलता 
चाहे अंडा हो या इंसां , होती सबकी ,एक गति है  
सबका है क्षणभंगुर जीवन,और एक सबकी नियति है  

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
मेरी आँखें 

पता नहीं क्यों,बहुत ख़ुशी में ,पनिया जाती,मेरी आँखें 
भावों से विव्हल हो,आंसूं,,भर भर लाती,मेरी आँखें 

दुःख में तो सबकी ही आँखें,बिसुर बिसुर  रोया करती है 
अपना कोई बिछड़ता है तो ,निज धीरज खोया करती है 
खिले कमल सी सुख में ,दुःख में ,मुरझा जाती मेरी आँखें 
पता नहीं क्यों ,बहुत ख़ुशी में ,पनिया जाती ,मेरी आँखें 

कभी चमकती है चंदा सी,और लग जाता कभी ग्रहण है 
रहती है ,खोई खोई सी,जब कोई से ,मिलता मन है 
हो आनंद विभोर ,मिलन में ,मुंद मुंद  जाती,मेरी आँखें 
पता नहीं क्यों,बहुत  ख़ुशी में ,पनिया जाती,मेरी आँखें 

जब आपस में टकराती है ,तो ये प्यार किया करती है 
छा जाता है ,रंग गुलाबी ,जब अभिसार किया करती है 
झुक जाती ,जब हाँ कहने में ,है शरमाती ,मेरी आँखें 
पता नहीं क्यों ,बहुत ख़ुशी में ,पनिया जाती,मेरी आँखें 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बूढ़ों के जज्बात 

क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते 

ये सच है कि साथ समय के ,ढल जाता तन है 
पर वो ही आशिक़ मिजाज सा रहता ये मन है 
भले जवानी के दिन वाला    जोश नहीं रहता  
लेकिन फिर भी देख हुस्न को होश नहीं रहता 
मन रंगीन ,उमंगों से भर ,मचला करता  है 
जलवा अब भी हमें हुस्न का ,पगला करता है 
लेकिन कुछ कर सकने के ,हालात नहीं रहते 
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते 

हाँ,थोड़ी कम हो जाती पर भूख तो लगती है 
आँखें अब भी ,हुस्न दिखे,चोरी से तकती  है 
ये सच है कि ना रहता यौवन का जलवा  है 
साथ समय के ,सिक कर इंसां ,बनता हलवा है 
पर कोई ना चखता ,मन को बात सालती  है 
बुढ़ियायें तक भी न हमें पर घास डालती है 
वो रंगीन मिजाजी के दिन रात नहीं रहते  
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते 

सर पर अगर सफेदी छाये ,तो क्या होता है 
आँख अगर धुंधली हो जाए ,तो क्या होता है 
भले नहीं तन का मिजाज अब पहले जैसा है 
पर दिल की रंगीनी तो रंगीन हमेशा   है 
देख हुस्न को अब भी यह मन उछला करता है
लेकिन अंकलजी कहलाना ,पगला करता  है 
अच्छे दिन भी ,ज्यादा दिन तक साथ नहीं रहते 
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

क्या ये उमर का असर है 

मुझे याद आते है वो दिन 
जब कभी कभी तुम 
होटल में खाने की करती थी फरमाइश 
और मेरे बजट में ,नहीं होती थी गुंजाईश 
तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना 
कर देता था मना 
क्योंकि उस एक दिन की आउटिंग में ,
मेरा महीने भर का बजट हो जाता बर्बाद 
और हम लौकी की सब्जी में ही ,
ढूँढा करते थे ,मटर पनीर का स्वाद 
और आज जब मैं इतना सम्पन्न हूँ 
कि तुम्हे हर रोज ,
पांच सितारा होटल में करा सकता हूँ भोज 
जब तुम्हे बाहर खाने को करता हूँ ऑफर 
तो तुम देख कर अपना मोटा होता हुआ फिगर 
या फिर डाइबिटीज से डर ,
बाहर खाने के लिए  मना कर देती हो 
और खाने में ,लौकी की सब्जी ,
बना कर देती हो 
वो ही लौकी तब भी थी ,
और वो ही लौकी अब है 
पर उनको खाने की वजहें अलग है 
दोनों में कितना अंतर् है 
क्या ये उमर का असर है?
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब मैं देख कर कोई औरत हसीन 
अगर गलती से उसकी खूबसूरती की ,
तारीफ़ कर देता था जो एक भी दफा 
तुम जल भुन  कर हो जाती थी खफा
बुरी तरह रूठ जाया करती थी 
दो दिन तक बात नहीं करती थी 
और आज मैं अगर किसी औरत की 
खूबसूरती की तारीफ़ देता हूँ  कर
तुम कह देती हो मुस्करा कर 
जाओ,चले जाओ उसीके पास 
कोई भी तुम्हे नहीं डालेगी घास 
घूम फिर कर फिर मेरे पास ही आना होगा 
मैं जैसी भी हूँ,उसी से काम चलाना होगा 
तुम भी वो ही हो ,मैं भी वही हूँ,
पर नज़रिये में आ गया कितना अंतर है 
क्या ये उमर का असर है?
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब मैं कभी तुमसे प्यार की मनुहार करता था ,
तुम नज़रें झुका ,ना ना कहती थी 
और फिर चुपचाप,यमुना की तरह ,
मेरी गंगा में मिल कर ,साथ साथ बहती थी 
और आज ,जब मै कभी कभी ,
करता हूँ प्यार की पहल 
तुम लेती हो करवट बदल 
तुम्हारे व्यवहार में आगयी इतनी प्रतिकूलता है 
चुंबन लेने में भी ,तुम्हारा सांस फूलता है 
आज भी मेरे प्यार के आव्हान पर ,
तुम्हारा उत्तर ना ना होता है 
कभी कमर दर्द तो कभी सर दर्द का,
बहाना होता है 
तुम्हारी तबकी ना ना में ,
और अब की ना ना में ,आ गया कितना अंतर् है 
क्या ये उमर का असर है?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

सबकी नियति
 
 ट्रे में सजे धजे सब अंडे,कोई कब तक मुस्काएगा 
सबकी नियति एक ,एक दिन ,हर अंडा तोडा जाएगा 
कोई चोंटें खा खाकर के ,यूं ही  चम्मच की टूटेगा 
मिला दूध में ,पी कर कोई ,ताक़त पा कर ,सुख लूटेगा 
कोई गरम गरम पानी में ,डुबो डुबो कर जाय उबाला 
और तोड़ फिर काटा जाता ,फिर खाया जाता ,बेचारा 
कोई तोड़ कर फेंटा जाता ,गरम तवे पर  जाय बिछाया 
और प्यारा सा आमलेट बन ,ब्रेकफास्ट में जाए खाया 
कुछ किस्मतवाले अंडे है ,जो तोड़े और फेंटे जाते 
मैदे में मिल,ओवन में पक,रूप केक का है वो पाते 
उन्हें क्रीम से सजा धजा कर ,सुन्दर रूप दिया जाता है 
मगर किसी के जन्मदिवस पर ,उसको भी काटा जाता है 
टुकड़े टुकड़े खाया जाता ,मुंह पर कभी मल दिया जाता  
किसी सुन्दरी के गालों का ,पा स्पर्श ,बहुत इतराता 
सबकी अपनी अपनी किस्मत ,मगर टूटना सबको पड़ता 
कोई ओवन,कोई तवे पर ,और पानी में कोई उबलता 
चाहे अंडा हो या मानव ,तपते,पकते रहते हर क्षण 
सबकी नियति एक है मगर,क्षण भंगुर सबका है जीवन 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
रिमझिम और बाढ़ 

रिमझिम बरसती बूँदें,लगती है बड़ी सुहानी 
लेकिन जब उग्र हो जाता है है ,वो ही पानी 
और उसके सर पर ,जब खून चढ़ जाता है 
तो वो मटमैला होकर ,बाढ़ का कहर ढाता है 
ऐसी ही रिमझिम जैसा होता है पत्नी का प्यार 
और गुस्सा,सहनशक्ति का बाँध तोड़ती ,बाढ़ 

घोटू 

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

 ये हाथ तुम्हारे 

ये हाथ तुम्हारे सुन्दर है ,कोमल है नरम मुलायम है 
फिर भी दिनभर सब काम करे,इन हाथों में इतना दम है 
इन हाथों का स्पर्श मात्र ,मुझको रोमांचित कर देता 
हाथो में हाथ लिए चलना ,जीवन में खुशियां भर देता 
ये हाथ मुझे जब सहलाते ,मुझको सिहरन सी लगती है 
ये हाथ बहुत प्यारे लगते ,जब इन पर मेंहदी सजती  है 
इन हाथों की रेखाओं में, है छुपी हुई  जीवन गाथा 
इन हाथों का जब साथ मिले ,सुख से जीवनपथ कट जाता 
इन हाथों की उंगली में ही ,जब एक अंगूठी पहनाते 
तो जीवन भर के बंधन में ,दो अनजाने भी बंध जाते 
इन हाथों में पहने कंगन ,जब खनका करते रातों में 
एक चिंगारी सी लग जाती,मन के सोये जज्बातों में 
इन हाथों की एक उंगली ही ,जब करती एक इशारा है 
तो बेबस हो नाचा करता ,हर एक पति बेचारा  है
इन हाथों द्वारा बना हुआ ,स्वादिष्ट बहुत लगता भोजन 
तारीफ़ करू,इनको चूमूँ ,ऐसा करता है मेरा मन 
ये हाथ सहारा देते है ,मुश्किल बिगड़े  हालातों में 
मैंने जीवन का सौंप दिया ,सब भार बस इन्ही हाथों में 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
खैर मना बददुआ नहीं दी 

तूने मुझे दुखी करने में ,छोड़ी कोई कसर नहीं थी 
मैने तुझको दुआ नहीं दी,खैर मना बददुआ नहीं दी 

ग्रहण काल में उगता सूरज ,पड़ा ग्रहों पर मेरे भारी 
तहस नहस घरबार हो गया ,ऐसी भड़की थी चिंगारी 
कोई को कुछ नहीं समझती ,इतना तुझमे चढ़ा अहम था 
सबसे समझदार तू जग में ,तेरे मन में  यही बहम था 
तेरी एक एक हरकत में ,नज़र छिछोरापन आता था 
पराकाष्ठा निचलेपन की ,काम तेरा हर दिखलाता था 
तेरे जैसी आत्मकेन्दित , देखी  मैंने  कहीं  नहीं थी 
मैंने तुझको दुआ नहीं दी,खैर मना बददुआ नहीं दी
 
मैंने  सोचा साथ समय के ,सोच तुम्हारी सुधर जायेगी 
आज नहीं तो शायद कल तक तुममे थोड़ी अकल आएगी 
इतनी कटुता और कुटिलता ,तेरे मन में भरी हुई है 
रिश्ते नाते अपनेपन की ,सभी भावना मरी हुई है 
चेहरे पर मुस्कान ओढ़ कर बातें करती ओछी ओछी 
हम भोले थे समझ न पाये ,तेरी चालें ,समझी ,सोची 
पल पल पीड़ा और वेदना ,आंसू पिये और सही थी 
मैंने तुझको दुआ नहीं दी ,खैर मना बददुआ नहीं दी 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 17 जुलाई 2017

चूक 

जिंदगी की राह में ,सुख भी मिले ,दुःख भी मिले,
कहीं पर राधा मिली तो कहीं पर रुक्मण मिली 
बालपन का प्यार निश्छल ,भुलाना मुझको पड़ा ,
उम्र भर जो नहीं सुलझी ,ऐसी एक उलझन मिली 
मूक है वो  बांसुरी अब. बिसुरती ,चुपचाप है ,
कभी जिसकी एक धुन पर ,नाचती थी गोपियाँ 
बांसुरी के छिद्र पर थिरके,सुरीली तान दे,
नहीं फुरसत ,व्यस्त है अब सुदर्शन में उँगलियाँ 
भुला दी वो कुञ्ज गलियां ,यमुना की कल कल मधुर ,
द्वारका के समंदर की ,बस गयी मन में  लहर 
द्वारका का धीश बन कर ,कन्हैया को क्या मिला ,
भूल यमुना का मधुर जल,पाया खारा समन्दर 
जिंदगी भर रही मन में ,यही पीड़ा सालती ,
कौन सा मुंह ले मिलूंगा ,यशोदा,नंदलाल से 
प्रेम राधा का भुलाया ,सखाओं की मित्रता,
भूल ऐसी किस तरह से ,हो गयी  गोपाल से 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी या अनुगामिनी 

जब औरतों के सर पर 
चढ़ जाता है मर्दों से बराबरी का चक्कर 
और वो उन्हें देना चाहती है टक्कर 
तो वो क्या खो रही है ,
उन्हें इसका अहसास नहीं होता है 
क्योंकि जब पति पास होता है 
तो मन में एक आत्मविश्वास होता है 
कोई शोहदों को पास फटकने नहीं देता 
सही सलामत मंजिल तक पहुंचाता है ,
भटकने नहीं देता 
साथ का सारा बोझा खुद उठाता है 
कहता है ये नाजुक लोगों का काम नहीं ,
इसे मर्दों का काम बतलाता है 
दुःख और परेशानी में ,
उसकी मजबूत बाहों का सहारा होता है
वो सच्चा मित्र और हमसफ़र प्यारा होता है 
उसके बलिष्ठ सीने से लग कर औरत ,
अपने आप को महफूज महसूस करती है 
कोई उसके साथ है इसलिए नहीं डरती है 
रोज मेहनत कर,कमा कर लाता है 
घर परिवार का  खर्चा चलाता है 
बच्चों का पालनपोषण और प्यार देता है 
उन्हें अनुशासन में रख ,अच्छे संस्कार देता है 
उसका साथ,एक सबसे बड़ी उपलब्धि है औरत की 
क्योकि वो ,एक जीती जागती मूरत है,
त्याग और मोहब्बत की 
परिवार की ख़ुशी होती उसकी प्राथमिकता है 
उसी के लिए वो दिनभर काम में पिसता है 
छुट्टी के दिन जब वो घर पर रहता है ,
घर में रौनक छाई  रहती है  
पूरे परिवार में ख़ुशी की बहार आयी रहती है 
जब वो आपका सच्चा साथी बन कर ,
निभाता अपना सब फर्ज है 
तो फिर महिलाओं को ,
उसकी अनुगामिनी बन कर रहने में क्या हर्ज है 
जो औरते बराबरी की बात करती है 
वो स्वयं पर कुठाराघात करती है 
क्योकि पति ने उन्हें बराबर का ही नहीं ,
अपने से बहुत ऊंचा दर्जा दिया हुआ है 
अपना सब कुछ उन्हें अर्पित किया हुआ होता है 
उन्हें  गृहलक्ष्मी मन उसकी पूजा करता है 
उन्हें कोई बात बुरी न लगे,डरता है 
उमके इशारों पर नाचता रहता है 
अपनी परेशानी ,हंसी में टालता रहता है 
वो नहीं होता तो घरमे सूनापन बिखरता है 
न खाना बनाने में मन लगता है ,
न सजने संवरने में मन लगता है 
जो औरतें अपने अहम में 
बराबरी की टक्कर के बहम में 
अपने को पुरुष से ऊंचा बतलाती है 
पुरुष का साथ नहीं  पाती है 
वो इन सारे खूबसूरत अहसासो से ,
वंचित रह जाती है 
जीवन में कितना कुछ खोती है 
कोई उनके अंतर्मन से पूछे,,
अकेले में कितनी दुखी होती है 
इसलिए मर्दों से मुकाबला न कर के ,
अपने को उनसे एक दर्जा नीचा ही दिखलाओ 
और जीवन के सारे सुखों का मज़ा उठाओ 
क्योकि इस समर्पण से ,
नीची नहीं होती आपकी नाक है 
यह स्वाभिमान से समझौता नहीं,
दिलों का रिश्ता है ,जो बड़ा पाक है 
आदमी को जब तक आप ये महसूस कराती हो ,
कि आपको उसकी जरूरत है ,
वो आगे बढ़ कर आपको सहारा देता है 
और जब आप अपने आप को श्रेष्ठ बताने का ,
प्रयास करती है तो वो हाथ खेंच लेता है 
इसीलिये प्यारी महिलाओं 
अपनी श्रेष्टता को वरिष्टत्ता मत बनाओ 
स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी न बन कर ,
पति की अनुगामिनी बन जाओ 
और जीवन का मज़ा उठाओ 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
चाँद तुझे मैं समझ न पाया 

चाँद तुझे मैं समझ न पाया कि तू क्या है 
रात रात भर जागा करता 
खिड़की खिड़की झांका करता 
पंद्रह दिन तक बढ़ता जाता 
पंद्रह दिन तक घटता जाता 
और एक दिन पूरा ही गायब हो जाता 
ये सब तेरा चक्कर क्या है 
चाँद तुझे मैं समझ न पाया कि तू क्या है 
तुझको कैसा जादू आता 
कैसे जोड़ लिया करता है  
सबसे ही तू अपना नाता 
माताये अपने बच्चों को ,
चंदा जैसा  प्यारा कहती 
अपना राजदुलारा कहती 
और बच्चे तुझको कहते है चंदा मामा 
ये मामा बनने का चक्कर ,
क्यों,कैसा है ,ये बतलाना 
क्यों सुहाग के सब पर्वों के,
 साथ तुझे जोड़ा जाता है  
पति की लम्बी उमर वास्ते ,
करवा चौथ औरते करती ,
और चलनी से तुझे देख कर ,
ही यह व्रत तोडा जाता है 
कोई प्रेमिका अपने प्रेमी ,
को तुझ जैसा बतलाती है 
इसीलिये 'तू मेरा चाँद ,
मैं तेरी चांदनी वो गाती है 
कोई प्रेमी परेशान हो ,
तुझको खुद सा बतलाता है 
इसीलिए गाना गाता है 
चंदा ओ चंदा ,किसने चुराई ,
तेरी मेरी निंदिया ,
जागे सारी रैना,तेरे मेरे नैना 
आसमान में घूमा करता तू आवारा 
 इससे  कितनी ही विरहन का ,
बन जाता तू एक सहारा 
तेरे साथ संदेशा चाहती वो भिजवाना 
गाकर गाना 
ऐ चाँद जहाँ वो जाए ,तू उनके साथ जाना 
हर रात खबर लाना 
प्रेमी अपनी प्रियतमा का ,
तुझमे अक्स ढूंढने जाते 
इसीलिए वो मेहबूबा मुख,
चाँद चौदहवी का बतलाते 
और सुहाग रातों में अक्सर 
पत्नी के गोर मुखड़े को ,
तुझसे करते है कम्पेयर 
भावुक होकर गाया करते है मस्ती में 
एक रात में दो दो चाँद खिले ,
एक घूंघट में ,एक बदली में 
इंग्लिश में भी पहली नाईट ,
,प्रथम मिलन की ,
तेरे संग है जोड़ी जाती 
जब दोनों प्रेमी मिलते है ,
हनीमून है वो कहलाती  
कोई प्रेमिका जब शरमाती 
क्योकि देख रहा होता तू,
प्यार ,मिलन में वो घबराती 
इसीलिये वो गाना जाती 
बदली में छुप जा रे 
ओ  चंदा ,प्यारे 
मैं उनसे प्यार कर लूंगी 
बातें हज़ार कर लूंगी 
सुनते है कि तू सूरज से ,
लेता है उधार रौशनी 
और सबमे बांटा करता है ,
शीतल उसको बना चांदनी 
दिल का तू कितना अमीर है 
तू सचमुच में दानवीर है 
ऐसा तुझमे क्या आकर्षण 
कि सागर की सारी लहरे ,
तुझसे मिलने उछला करती 
तू जब होता है शबाब पर ,
और जिस दिन होती है पूनम 
ऐसा जाने क्या है तुझमे ,
तेरा रुदबा बढ़ा हुआ है 
इसीलिये तो तू शिवजी के ,
मस्तक भी चढ़ा हुआ है 
एक बात और समझ के बाहर 
किसी काम के लिए
 सभी से मांग मांग कर 
पैसा लोग इकठ्ठा जो करते रहते है 
उसको 'चन्दा'क्यों कहते है 
तेरी सब बाते अलबेली 
अभी तलक पहचान न पाया ,
चंदा तू अनबूझ पहेली 
हर दिन तेरा रूप नया है 
चाँद,तुझे मैं समझ न पाया कि तू क्या है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 12 जुलाई 2017

बीते हुए दिन

उन दिनों सीनियर सिटिज़न फोरम की
 मीटिंग की तरह ,
लगा करती थी एक चौपाल  
सब पूछते थे ,एक दूसरे का हाल 
मिल बैठ कर ,हँसते गाते थे 
एक दूसरे के सुख दुःख में काम आते थे 
न कोई पॉलिटिक्स था ,न अहम का टकराव था 
न कोई दुराव था ,न कोई छिपाव था 
आपस में प्रेम था ,लगाव था 
व्हाट्स एप ग्रुप की तरह ,
एक हुक्का होता था ,जिसे सब गुड़गुड़ाते थे 
सब बराबर का मज़ा उठाते थे 
न कोई छोटा था न कोई बड़ा था 
न कोई एडमिन बनने का झगड़ा था 
जिसके मन में जो आता था,,कह लेता था 
किसी को बुरा लगता ,तो सह लेता था 
हंसी ख़ुशी  मेलजोल की आदत थी 
बदले की भावनाएं नदारद थी 
आज हम भूल वो ख़ुशी के पल गए है 
क्या हमें नहीं लगता की हम बदल गए है 
आज हम जो जी रहे है ,बोनस में मिली जिंदगी 
क्यों न इसे गुजार दे ,हंसी ख़ुशी करके दिल्ल्गी 
जिसके मन में जो आये,कहने दो 
व्हाट्स एप पर जो संदेशे आते है,आते रहने दो 
क्या पढ़ना ,क्या न पढ़ना ,ये आपकी  चॉइस है 
आपसी मतभेद मिटाने की काफी गुंजाईश है 
जैसा चल रहा था ,वैसा चलने दो 
ये आपका लगाया पौधा है,
इसे फूलने फलने दो 
भुला दो कौन है एडमिन और कौन होगा एडमिन 
प्लीज् ,लौटा दो ,वो ही बीते हुए दिन 

घोटू 

सोमवार, 10 जुलाई 2017

खुल जा सिम सिम 

१ 
अलीबाबा और चोर का ,किस्सा कर लो याद 
एक खजाना लग गया ,अलीबाबा के  हाथ 
अलीबाबा के हाथ ,हुई थी धन की रिमझिम 
खुले खजाना ,जब वो कहता ,खुल जा सिम सिम 
कह घोटू कवि ,भरे हुए थे ,हीरा,मोती 
वो ले आता लाद ,उसे जब जरूरत होती 
२ 
वैसे ही एक खजाना ,पास हमारे आज 
सिम सिम याने डबल सिम ,छुपा इसी में राज 
छुपा इसीमे राज ,खजाना है मोबाइल 
और इस सिम सिम से लूटो जितना चाहे दिल 
दुनिया भर का ज्ञान,सूचना सब मिल जाते  
अपनों से दिन रात करो, जी भर कर बातें 

घोटू 
मज़ा उठालो जीवन के हर पल का


जब होता है समय ,हमें ना मिलती फुरसत ,
जब होती है फुरसत ,बचता समय नहीं है 
इसीलिए हम इस जीवन के एक एक पल का,
पूर्ण रूप से मज़ा उठाले, यही सही  है 
जब तक दूध पड़ा था ताज़ा ,पी ना पाए,
वक़्त गुजरने पर फट जाता या जम जाता 
फटे दूध को तुम पनीर कह मन बहला लो ,
जमे दूध में ,कभी दही सा स्वाद न आता 
मित्रों ,समय हुआ करता है एक पतंग सा ,
जरा ढील दी ,छूटा ,हाथ नहीं आता है 
गयी हाथ से निकल डोर और पतंग उड़ गयी ,
साथ पतंग से मांजा भी सब उड़ जाता है 
जब तक तन में शक्ति थी तुम जुटे काम में,
रत्ती भर भी मज़ा उठाया ना जीवन का 
अब जब थोड़ा वक़्त मिला तो बची न शक्ति ,
ढीला ढाला पड़ा हुआ हर पुर्जा तन का 
हरे  आम होते  है  खट्टे  और सख्त भी,
पक जाने पर ,हरे आम ,पीले पड़ जाते 
सही समय पर उसका मीठा स्वाद उठालो,
अगर देर की ,तो फिर आम सभी सड़ जाते 
जब हो लोहा गरम चोंट तुम तब ही मारो ,
ठन्डे लोहे पर होता कुछ असर नहीं है 
इसीलिये हम इस जीवन के एक एक पल का 
,पूर्ण रूप से मज़ा उठाले,यही सही है 
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
ऐसा भी होता है 

एक कोने में पलंग के ,हम रहते मजबूर 
उस कोने में पलंग के ,पत्नी सोती दूर 
पत्नी सोती दूर ,नींद ना आती ढंग से 
एक रात करवट बदली,वो गिरी पलंग से
तबसे मुझसे लिपटी चिपटी वो सोवे है  
हर मुश्किल का अंत सदा अच्छा होवे है 

घोटू 
वो पुराना जमाना 

आज जब जीवन,
 बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है 
हमें रह रह कर ,
वो पुराना जमाना याद आ रहा है 
तब जब न सर्फ़ था ,न एरियल था ,न टाइड था 
बस सिर्फ  एक साबुन सनलाइट  था ,
जिससे  घर भर के सारे कपडे धुला करते थे 
और कुछ लोग उससे नहा भी लिया करते थे 
वैसे नहाने के लिए ,लाइफबॉय की लाल बट्टी 
आया करती थी काम 
या फिर कुछ लोग काम में लेते थे जय और हमाम 
वैसे उन दिनों  लक्स साबुन भी पॉपुलर था ,
जिसे विज्ञापन सिने तारिकाओं के सौंदर्य का 
रहस्य बतलाते थे 
भले ही उससे डेविड,शेट्टी और ओमपूरी भी नहाते थे 
बचे हुए साबुन की चीपटों से ,
शौच के बाद हाथ साफ़ किये जाते थे 
वैसे इस काम के लिए ,मिट्टी और राख  ,
काम में लिए जाते थे 
औरते,काली मिटटी और दही मिला कर ,
सर के बालों को धोने के लिए काम में लाती थी 
और मेकअप के लिए अफगान स्नो लगाती थी 
न तरह तरह के शेम्पू होते थे ,न कंडीशनर थे 
सिर्फ ब्राह्मी आंवला तेल ,लगाते सर पर थे 
न परफ्यूम थी या सेंट या डियो थे 
लोग कान में रखते इत्र के फुहे थे 
उन दिनों कूलर और ए सी नहीं होते थे 
रात को लोग ,खुली छतों पर सोते थे 
गर्मी में हाथ से पंखा डुलाते थे 
और गर्मी से निजात पाते थे
 मटके और सुराही का पानी पीते थे 
और खुश होकर जीवन जीते थे 
न कोकोकोला था ,न पेप्सी थी ,
न थम्सअप का जोश था 
फिर भी सबके मन में संतोष था 
थोड़ी सी पगार और बहुत बड़ा परिवार 
फिर भी ख़ुशी ख़ुशी लेते थे जीवन गुजार 
छोटा भाई,बड़े भाई के छोटे हुए कपडे पहनता था 
टीवी के सीरियल नहीं थे ,
दादी,नानी की कहानियों से मन बहलता था 
रोज दाल रोटी खाते थे ,
बस कभी कभी ही पकवान छनते  थे 
त्योंहारों पर ही ,
पूरी और पूवे बनते थे  
पिज़्ज़ा,पास्ता या बर्गर 
या फिर दो मिनिट में बनने वाले नूडल 
लोग इन सबके नाम से भी अनजान थे 
सीधीसादी  जिंदगी थी,भोले भाले  इंसान थे 
पर जबसे इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने डेरा डाला है 
नई नई ब्रांडों के चक्कर ने ,
सारा बजट ही बिगाड़ डाला है 
हर काम के लिए ,अलग अलग प्रोडक्ट ,
और अलग अलग ब्रांड आ गए है 
विज्ञापन के बल पर लोगों के ,
दिलो दिमाग पर छा गए है 
ब्रांडेड चीजों का उपयोग ,
एक स्टेटस सिम्बल बन गया है 
सब लोग खोजते है,क्या नया है 
इसी चक्कर में चीजों  के दाम,
 आसमान पर चढ़ गए है 
 खरचे  बेहताशा बढ़ गए है 
 मंहगी वस्तुए ,लोगो की पसंद हो  गयी है 
और जबसे ये माल खुल गए है,
छोटी दुकाने बंद हो गयी है 
चार आने वाली चाट ,बड़े बड़े रेस्टारेंट में 
चालीस रूपये की मिलती है 
और फिर भी खरीदने के लिए
 लोगों की लाइन लगती है 
देखिये ,कैसे दिन आ रहे है 
लोग जेब कटवा कर भी मुस्करा रहे है 
जीवनशैली का ये परिवर्तन ,
हमे कहाँ से कहाँ ले जा रहा है 
मुझे आज फिर वो पुराना जमाना याद आरहा है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

टॉवर एक की रंगीन किट्टी 
१ 
किट्टी टावर एक की ,करती है इम्प्रेस 
थीम रखी सबआएँगी ,पहन कलरफुल ड्रेस 
पहन कलरफुल ड्रेस ,रंग जो ज्यादा लावे
 प्राइस की हक़दार वही महिला कहलावे 
कह घोटू कविराय ,खेल कुछ ऐसा खेला 
होटल में लग गया ,कई रंगों का मेला 
२ 
वैसे ही सब सुंदरी ,एक से बढ़ कर एक 
आयी बन कर कलरफुल पहने रंग अनेक 
पहने रंग अनेक ,लगी जब वे सब सजने 
चूड़ी,कुर्ती पहन ,लिपस्टिक से लब रंगने 
घोटू बोले ,हाथों में  मेंहदी  रचवालो 
और शरमा कर,गाल गुलाबी ,निज कर डालो 
३ 
घोटू पत्नी ने लगा ,रंगों का अम्बार 
कहा आत्मविश्वास से,जीतूंगी इस बार 
जीतूंगी इस बार ,देख कर अटल इरादा 
पत्नी के उन्नीस रंग थे सबसे ज्यादा 
रंग बीसवां था रंगीन मिजाजी वाला 
और इक्कीसवाँ रंग ,चढ़ा प्रीतम का प्यारा 

घोटू 

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

नदिया  यूं बोली सागर से 

तुम्हारा विशाल वक्षस्थल ,देख उछलती लहरें मन में 
इतनी थी मैं हुई बावरी, दौड़ी  आयी तुमसे मिलने 
तुम्हारा पहला चुम्बन जब ,लगा मुझे कुछ खारा खारा 
मैंने सोचा ,हो जाओगे ,मीठे हो जब मिलन  हमारा  
अपना सब मीठापन लेकर ,रोज आई  मैं पास तुम्हारे 
लेकिन तुम बिलकुल ना बदले ,रहे वही  खारे  के खारे  
तुमने तप कर ,बादल बन कर ,उड़ा दिया मीठापन सारा 
जन और जगती के जीवन हित ,देखा जब ये त्याग तुम्हारा 
तमने अपना स्वार्थ न देखा ,किया समर्पित अपना जीवन  
देख परोपकारी अंतर्मन ,भूल गयी मैं सब  खारापन 
इसीलिए बस दौड़ी दौड़ी ,तुमसे मिलने भाग रही हूँ 
पूर्ण रूप से ,तुम्हे समर्पित , निज मीठापन  त्याग रही हूँ 

घोटू 
सुख दुःख बाँटें 

नहीं हमको सिर्फ मीठा सुहाता ,सिर्फ हम नमकीन  खा  सकते नहीं 
मीठे और नमकीन का जब मेल हो,मज़ा आता खाने का ,तब ही सही 
वैसे जीवन में किसी को सुख सिरफ ,और किसी को दुःख सिरफ मिलते रहे 
रहे कोई मुश्किलों से जूझता ,फूल खुशियों के कहीं खिलते रहें 
अपने सुख ,दुःख और समस्याएं सभी ,मीठे और नमकीन सी हम बाँटले 
मुश्किलों के सारे दिन काट जायेंगें , जिंदगी का मज़ा मिल कर साथ  लें 

घोटू  
खारा समंदर कर दिया 

नदियों ने तो मीठा जल ही ,समंदर में भरा था,
उसका मीठापन सभी पर गुम हुआ जाने कहाँ 
कभी मंथन करने पर जो ,उगला करता रत्न था ,
बात ऐसी क्या हुई अब पहले जैसा ना  रहा 
हंस के मिल के ,संग रहती ,सब की सब जो मछलियां ,
हुई एक दूजे की दुश्मन ,भय था अंदर भर दिया 
इस तरह से अहम जागा ,मित्रता गायब हुई  ,
आपसी टकराव ने ,खारा समंदर  कर दिया 

घोटू 

रविवार, 2 जुलाई 2017

दामाद का दर्द 

अपनी पत्नी से परेशान 
एक शादीशुदा  नौजवान 
जब अपनी पत्नी की ज्यादतियों को,
झेल नहीं पाया 
तो अपने ससुर के पास जाकर,
अपना दुखड़ा  रोते हुये  गिड़गिड़ाया 
ससुरजी ,आपने भी बनाया है क्या आइटम 
जो मेरा ही सर खाती  रहती है हरदम 
छोटी छोटी बात पर झगड़ती रहती है 
मेरे माबाप से लड़ती रहती है 
घर को परेशानियों से भर दिया है 
मेरा जीना दूभर कर दिया है 
हो गया मेरा बड़ा गर्क है 
मेरा जीवन बन गया नर्क है 
आप प्लीज ,अपनी बेटी को समझाओ ,
और दे दो थोड़ा ज्ञान 
मुझे चैन से जीने दे ,ना करे परेशान 
जमाई की बात सुन कर ,
ससुरजी सेंटीमेंटल होने लगे 
और दामाद के आगे ,
अपना दुखड़ा रोने लगे 
बोले बेटा ,मै तेरा दर्द समझ सकता हूँ 
क्योंकि मै भी इसी पीड़ा में जलता हूँ 
मुझे तेरी पीड़ाओं का ज्ञान है 
क्योंकि जिस कपडे के टुकड़े तू परेशान है 
पिछले कई वर्षों से मेरे पास ,
उस कपडे का पूरे का पूरा थान है 
अब जैसे भी है,काम चलाले 
जैसे मैंने निभाई  है ,तू भी निभाले 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बुढ़ापे की एक शाम ,ऐसे भी कट जाती है 

दो वरिष्ठ वृद्धजन ,
अपनी तन्हाई की शामे ,
इस तरह बिताते है 
शहर की व्यस्त सड़क पर ,
फैशन गारमेंट की दूकान के सामने,
सीढ़ियों पर बैठ कर ,
इधर उधर नज़रें घुमाते है 
और घंटो बतियाते है 
उनका यह अड्डा और ये दिनचर्या ,
यार दोस्तों में चर्चा का विषय बन गया है 
आखिर  एक दिन हमने पूछ ही लिया ,
रोज घंटो करते ,इतनी बातें होती ही क्या है 
उनमे से एक मुस्कराया और बोला 
यार हम तो वहां बैठ कर,नज़रें सेकते है 
आती जाती हुई महिलाओं को देखते है 
अगर महिला जवान हुई ,
तो उसके रूप की चर्चा करते है 
और उसकी हुलिया और चालढाल ,
फिल्म की किस हीरोइन से मिलती जुलती है ,
यही सोचा करते है 
अगर वो महिला,प्रोढ़ा या ढलती उमर की हुई,
तो गौर से निहारते है उसकी हालत 
और खंडहर को देख कर ,
ये अंदाज लगाने की कोशिश करते है  
कि अपने पूर्ण वैभव के दिनों में,
कितनी बुलंद रही  होगी वह इमारत 
और अगर वो बढ़ती हुई उमर की ,
कमसिन किशोरी हुई तो कयास लगाते है ,
कि बड़ी होकर वो कैसी नज़र आएगी 
अपने हुस्न के जादू से कितनो पर सितम ढायेगी 
यही नहीं ,दूकान में और भी ,
कितनी ही जोड़ियां आती जाती है 
उनकी गतिविधियां ,
उनके पारिवारिक जीवन के बारे में ,
काफी कुछ बतलाती है 
पति पत्नी की जोड़ी  दूकान के अंदर ,
साथ साथ तो जाती है 
पर थोड़ी देर बाद पति,
 बाहर निकल कर ,टहलने लगता है 
औरपत्नी अंदर ही रह जाती है
इससे पता लगता है मियां बीबी में ,
थोड़ी कम ही बनती है 
और अपनी अपनी पसंद को लेकर ,
दोनों में  में काफी ठनती है 
और कुछ पति पत्नी जब  बाहर आते है और 
पति का हाथ, शॉपिंग बैग्स से होता है लदा 
इससे पता लग जाता है ,
कि उनका वैवाहिक जीवन  
खुशियों से भरा रहेगा सदा 
बस यही हमारा शगल है 
मस्ती से वक़्त जाता गुजर है 
इन सब चीजों पर चर्चाएं ,
हमारे मन को बहलाती है 
और बुढ़ापे की एक और शाम ,
मस्ती से  कट जाती है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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