ट्रेन की खिड़की से क्या क्या देखूं ?
ट्रेन की खिड़की से झांकता हुआ,
मै सोचता हूँ कि मै क्या क्या देखूं?
अखबार के सफ़ेद कागज़ पर,
काली श्याही से छपी,लूटमार कि,
या ख़बरें सियासी देखूं
या धरती के आँगन में ,
दूर दूर तक फैली हरियाली देखूं
उन रेल कि पटरियों को देखूं,
जिनकी दूरियां ,
आपस में कभी ना मिल पाती है
या उनपर चलती हुई रेलगाड़ियाँ देखूं,
जो दूरियां मिटाती हुई,बिछड़ों को मिलाती है
ऊपर फैले हुए निर्जीव तारों के जाल को देखूं,
जिनमे बहती विद्युत् धारा,
रेल को गतिमान करती है
या पटरियों के वे जोइंट देखूं,
जहाँ से रेल,दलबदलू नेताओं कि तरह,
पटरियां बदलती है
पटरियों के किनारे,सुबह सुबह,
शंका निवारण करते हुए,
झुग्गी झोंपड़ी वासियों की कतार देखूं
या उनके पीछे खड़ी हुई,
उनका उपहास उडाती ,
अट्टालिकाओं का अंबार देखूं
मै इसी शशोपज में था कि,
पासवाली रेल लाइन पर सामने से,
तेज गति से एक रेल आती है
और विपरीत दिशाओं में जाने के कारण,
विरोधाभास उत्पन्न करती हुई,
दूनी गति का आभास कराती है
इसी विरोधाभास को देख कर लगता है,
क्यों बढती जा रही,
अमीरी और गरीबी के बीच की दूरियां है
ये तो कभी ना मिल सकने वाली,
रेल की पटरियां है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
साइबर ठगों का नया हथियार आपके बच्चे
-
आज आदमी डिजिटल हो चला है, जहाँ देखिये आदमी के हाथ में मोबाइल चलता ही रहता
हैँ. अब तो ये लगने लगा है कि अगर ये स्मार्ट फोन हाथ में नहीं है तो न ही
हमारी...
3 घंटे पहले
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।