निर्मल आनंद
मेरे मन में जो उलझे थे ,
छंद सभी स्वछन्द होगये
दुःख पीड़ा से मुक्त हो गए ,
एक निर्मल आनंद हो गए
कवितायेँ सब ,सरिताएं बन ,
बही ,हुई विलीन सागर में
लगा उमर का ताप ,भाव सब ,
बादल बने ,उड़े अंबर में
ऐसी दुनियादारी बरसी ,
चुरा सभी जज्बात ले गयी
जिन्हे समय की हवा बहा कर ,
इत उत अपने साथ ले गयी
अब तो बस, मैं हूँ और मेरी ,
काया दोनों मौन पड़े है
जहाँ वृक्ष ,पंछी कलरव था ,
कांक्रीट के भवन खड़े है
मैं खुद बड़ा अचंभित सा हूँ ,
इतना क्यूँ बदलाव आ गया
मेरे हँसते गाते मन में ,
क्यों बैरागी भाव छा गया
मै तटस्थ हूँ ,लहरें आती,
जाती मुझको फर्क न पड़ता
इस उच्श्रृंखल चंचल मन में ,
क्यों आ छायी है नीरवता
मोह माया से हुई विरक्ति ,
हुआ कभी ना पहले ऐसा
क्या यह आने वाली कोई ,
परम शांति का है संदेशा
बस अब तो ये जी करता है ,
अंतरिक्ष में ,मैं उड़ जाऊं
मिले आत्मा ,परमात्मा से ,
परमशक्ति से मैं जुड़ जाऊं
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '