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सोमवार, 3 सितंबर 2018

       हम भी कैसे है?

प्रार्थना करते ईश्वर से ,घिरे बादल ,गिरे पानी,
          मगर बरसात  होती है तो छतरी तान लेते है 
बहुत हम चाहते  है कि चले झोंके हवाओं के ,
           हवा पर चलती जब ठंडी ,बंद कर द्वार लेते है 
हमारी होती है इच्छा ,सुहानी धूप खिल जाये ,
            मगर जब धूप खिलती है,छाँव में  भाग जाते है
 देख कर के हसीना को,आरजू करते पाने की,
           जो मिल जाती वो बीबी बन,गृहस्थी में जुटाते है 
हमेशा हमने देखा है,अजब फितरत है इन्सां की  ,
           न होता पास जो उसके  ,उसी की चाह करता  है 
मगर किस्मत से वो सब कुछ ,उसे हासिल जो हो जाता ,
          नहीं उसकी जरा भी  फिर,कभी परवाह करता है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'  
  कान्हा -बुढ़ापे में 

कान्हा बूढ़े,राधा बूढी ,कैसी गुजर रही है उन पर
बीते बचपन के गोकुल में,दिन याद आते है रहरह कर  
माखनचोर,आजकल बिलकुल ,नहीं चुरा,खा पाते मख्खन 
क्लोस्ट्राल बढ़ा,चिकनाई पर है लगा हुआ प्रतिबंधन 
धर ,सर मटकी,नहीं गोपियाँ,दूध बेचने जाती है अब 
कैसे मटकी फोड़ें,ग्वाले,बेचे दूध,टिनों में भर  सब  
उनकी सांस फूल जाती है ,नहीं बांसुरी बजती ढंग से 
सर्दी कहीं नहीं लग जाए ,नहीं भीगते ,होली  रंग से 
यूं ही दब कर ,रह जाते है,सारे अरमां ,उनके मन के 
चीर हरण क्या करें,गोपियां ,नहा रही 'टू पीस 'पहन के 
करना रास ,रास ना आता ,अब वो जल्दी थक जाते है 
'अंकल'जब कहती है गोपी,तो वे बहुत भड़क जाते है 
फिर भी बूढ़े ,प्रेमीद्वय को,काटे कभी प्रेम का कीड़ा 
यमुना मैली, स्विंमिंगपूल में ,करने जाते है जलक्रीड़ा 

मदनमोहन बाहेती'घोटू'  
           कृष्णलीला 

कन्हैया छोटे थे एक दिन,उन्होंने खाई  थी माटी 
बड़ी नाराज होकर के ,  यशोदा मैया थी   डाटी 
'दिखा मुंह अपना',कान्हा ने ,खोल मुंह जब दिखाया था 
तो उस मुंह में यशोदा को ,नज़र ब्रह्माण्ड   आया था 
मेरी बीबी को भी शक था ,   मिट्टी बेटे ने है खाई 
खुला के मुंह जो देखा तो,उसे   दुनिया  नज़र आयी 
कहीं 'चाइनीज ' नूडल थी,कहीं 'पॉपकॉर्न 'अमरीकी'
कहीं थे 'मेक्सिकन' माचो,कहीं चॉकलेट थी 'स्विस 'की 
कहीं 'इटली'का पीज़ा था,कहीं पर चीज 'डेनिश'  थी 
कहीं पर 'फ्रेंच फ्राइज 'थे,कहीं कुकीज़ 'इंग्लिश 'थी 
गर्ज ये कि  मेरे बेटे के ,मुंह  में दुनिया   थी  सारी
यशोदा सी मेरी बीबी , बड़ी अचरज की थी मारी 
वो बोली लाडला अपना ,बहुत  ही गुल खिलायेगा
बड़ा हो ,गोपियों के संग ,रास निश्चित ,रचायेगा 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

शनिवार, 1 सितंबर 2018

क्यों इतना कठिन बुढ़ापा है 

उगता सूरज सुन्दर होता ,बचपन भी होता है सुन्दर 
है दोपहरी में सूर्य प्रखर ,यौवन भी होता है मनहर 
होती मनमोहक स्वर्णकिरण ,जब सूरज ढलने को आता 
तो फिर क्यों ढलती हुई उमर ,होती  दुखकर इतनी ज्यादा 
सूरज ढलता ,आती रजनी ,छा जाता नभ में अँधकार 
वृद्धावस्था के बाद मृत्यु ,यह क्रम चलता है बार बार 
सूरज चलता ,बादल ढकते  ,व्यवधान हमेशा आता है 
लेकिन मानव के जीवन में ,क्यों इतना कठिन बुढ़ापा है 

घोटू 
देखो मुझको डाटा न करो 

देखो मुझको डाटा न करो ,चिल्ला इस तरह उच्च स्वर में 
वरना हम तुम की नोकझोंक ,के किस्से होंगे घर घर में 

ऑफिस में  करते कद्र सभी ,
            तुम मुझे समझती हो बेढब 
पर बात और बिन बात मुझे ,
           तुम डाटा करती हो जब तब 
होंगे डिस्टर्ब पडोसी सब , 
                गाली दे देकर  कोसेंगें 
क्या असर पड़ेगा बच्चों पर ,
                 मम्मी पापा क्या सोचेंगे 
पर तुम्हे कोई परवाह नहीं ,
                 थोड़ा धीरज ना धर पाती 
मन माफिक जो कुछ नहीं हुआ ,
                 बस डंडा लेकर चढ़ जाती 
तुम सीखो धीरज धरना भी 
ऊपरवाले से डरना भी 
इस रोज रोज के झगड़े से ,हो गया तंग हूँ डियर  मैं 
देखो मुझको डाटा न करो ,चिल्ला इस तरह उच्च स्वर में 

है ये भी बात नहीं कि है
                  बोली में तुम्हारे तीखापन 
है बहुत मधुर स्वर तुम्हारा ,
                  पढ़ती जब गीता ,रामायण 
वह मधुर तुम्हारी बोली थी ,
                   जिसने मोहा था मेरा मन 
अब भी बच्चों और महरी से 
                तुम मीठी बात करो हरदम 
फुसफुसा बात करती मुझसे ,
               तुम हंसकर ,बहुत मधुर स्वर में 
जब मूड प्यार का होता है ,
                 हम तुम होते है बिस्तर में 
वो मीठे स्वर मुंह पर लाओ 
इस तरह डाट मत चिल्लाओ 
पुचकार कहो,सब काम करू,बन कर तुम्हारा नौकर मैं 
देखो मुझको डाटा न करो , चिल्ला इस तरह उच्च स्वर में 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
 

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