एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

गुरुवार, 5 जून 2014

लकीर के फ़कीर

            लकीर के फ़कीर

जो चलते है निश्चित पथ पर ,उनकी यात्रा होती सुखमय
ना तो  ऊबड़ खाबड़ रस्ता ,नहीं भटकने का कोई भय
लोह पटरियां, बिछी रेल की,पथ मजबूत ,बराबर,समतल
निश्चित पथ पर आती,जाती, ट्रेन चला करती है दिन भर
हम लकीर के यदि फ़कीर है ,सुगम जिंदगी का होता पथ
बिन बाधा के ,तीव्र गति से ,चलता रहता  है जीवन रथ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

पिताजी याद आतें है

       पिताजी याद आतें है

हमारी जिंदगी में जब भी दुःख,अवसाद आते है
परेशाँ मुश्किलें करती ,पिताजी याद आते है
सिखाया जिनने चलना था,हमें पकड़ा के निज उंगली
कराया ज्ञान अक्षर का  ,पढ़ाया  लिखना अ ,आ, ई
भला क्या है,बुरा क्या है ,गलत क्या है ,सही क्या है
दिया ये ज्ञान उनने  था,बताया   कैसी दुनिया  है
कहा था ,हाथ मारोगे,  तभी तुम तैर पाओगे
हटा कर राह  के रोड़े ,राह  अपनी  बनाओगे
नज़र उनपे ही जाती थी, जब आती थी कोई मुश्किल
उन्ही के पथप्रदर्शन से ,हमें हासिल हुई मंज़िल
जरुरत जब भी पड़ती थी,सहारा उनका मिलता था
नसीहत उनकी ही पाकर,किनारा हमको मिलता था
ढंग रहने का सादा था ,उच्चता थी विचारों में
भव्य व्यक्तित्व उनका था ,नज़र आता हजारों में
अभी भी गूंजती है खलखिलाहट और हंसी उनकी
वो ही चेहरा चमकता सा और वो सादगी उनकी
भले ही सख्त दिखते थे  हमें करने को अनुशासित
मगर हर बात में उनकी ,छुपा रहता , हमारा हित
उन्ही की ज्ञान और शिक्षा ,हमारी सच्ची दौलत है
आज हम जो भी कुछ है सब,पिताजी की बदौलत है
आज भी मुश्किलों के घने बादल ,जब भी छाते है
उन्ही की शिक्षा से हम खुद को बारिश से बचाते है
उन्ही के बीज है हम ,आज जो ,विकसे,फले,फूले
हमें धिक्कार है ,उपकार उनका ,जो कभी  भूले
वो अब भी आशीर्वादों की ,सदा सौगात लातें है
भटकते जब भी हम पथ से, पिताजी याद आते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

चुनाव -२०१४ के बाद

              चुनाव -२०१४ के बाद
                    तीन चित्र
                         १
                 स्थान परिवर्तन 
   कोई कहता था इस करवट,कोई कहता था उस करवट
    सभी के मन  में शंका  थी,  ऊँट  बैठेगा  किस  करवट
   मगर  करवट बदल कर ऊँट है कुछ इस तरह बैठा
   खत्म ही हो गया  डर  खिचड़ी ,सरकार बनने  का 
   नहीं पी एम 'मौनी' और ना सरकार कठपुतली
   बने पी एम 'मोदी ',इस तरह सरकार है बदली
   नयी संसद की  अबके इस तरह बदली कहानी है
  जहाँ पर बैठती थी सोनिया जी, अब अडवाणी है
                              २
                      स्वप्न भंग 
 मुलायम सोचते थे बनेगी सरकार जो खिचड़ी
मिलेगी खाने को उनको,मलाई,मावा और रबड़ी
अगर जो उचट करके लग गयी और साथ दी  किस्मत
हमारे सांसदों से ही  मिलेगा,  किसी को  बहुमत
हाथ लग जाय मुर्गी ,रोज  दे जो , सोने का अंडा
किले पे दिल्ली के फहराएं अबकी बार हम झंडा
मगर टूटी कमर ऐसे गिरे हम ,औंधे मुंह के बल
सिमट कर रह गए परिवार के ही चार हम केवल
                             ३
                        गवर्नर  
पुराना राजवंशी हूँ,बहुत मुझमे था दम और ख़म
बड़ा कर्मठ खिलाड़ी हूँ ,रहा सत्ता में ,मैं  हरदम
टिकिट मुझ को मिला ना जब ,मुझे गुस्सा बड़ा आया
लड़ा चुनाव खुद के बल ,भले ही फिर मैं पछताया
ये है विनती ,पुरानी दोस्ती का,कुछ सिला देना 
किसी भी राज्य का मुझको ,गवर्नर तुम बना देना
 
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 3 जून 2014

प्राणायाम--एक शंका

प्राणायाम--एक शंका

ऐसा कहा जाता है
आदमी गिनती की सांस लेकर आता है
और जब वो गिनती पूरी हो जाती है
मौत आती है
जीवन जीने में हर रोज
देतें है महत्वपूर्ण सहयोग
भोग और योग
भोग की प्रक्रिया में ,साँसे गतिमान होती है
और आदमी जितना ज्यादा भोग में लिप्त होता है ,
उतनी साँसों की गिनती कम होती जाती है
और उम्र घट जाती   है 
इसीलिए ,ऐसा  कहा जाता है
 ब्रह्मचर्य , उम्र को बढाता  है
और योग की एक विधा ,
जिसे  हम प्राणायाम कहते है
जिसमे अलग अलग विधि से ,
जल्दी जल्दी सांस लेते है
ये भी कहा जाता है  कि ,
प्राणायाम करने  से , उम्र बढ़ जाती है
यह बात हमारी समझ में कम आती है
जब जिंदगी की साँसे ,गिनी चुनी होती है ,
तो क्यों हम प्राणायाम कर,
जल्दी जल्दी सांस लेकर ,
व्यर्थ ही अपनी साँसों की गिनती ,
 यूं ही कम कर दिया  करते है
और अपनी उम्र घटा दिया करते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

पीड़ा-टूटे आईने की

              पीड़ा-टूटे आईने की

मुझे अब याद आते है ,वो दिन कितने सुहाने थे,
           मेरे ही सामने आकर ,संवरती थी, हसीनाएं
बड़ी नटखट निराली शोखियों से,कई कोणों से,
           गठीले जिस्म को अपने,निरख़ती  थी हसीनाएं
दिखाती थी कई नखरे,अदा से मुस्कराती थी ,
          कभी खुद पे फ़िदा ,खुद को चूमा करती थी,हसीनाएं        
कभी नयनों के खंजर पे,धार करती थी कजरे से,
           नज़र  तिरछी से  दिल पर  वार ,करती थी हसीनाएं
 लगा के लाली होठों पर ,सुलगती  आग भरती थी,
           जलाती सब के दिल को ,खुद भी जलती थी ,हसीनाएं
बसा करता था उनका अक्स ,मेरे जिस्म के अंदर ,
                  नहीं  मुझसे कभी भी  शर्म ,करती थी ,हसीनाएं     
मगर देखा उन्हें बेशर्मी से ,अठखेलियां करते ,
                  गैर के संग ,तो दिल टुकड़े टुकड़े  हो गया मेरा
 आज भी मेरे हर टुकड़े में जो वो झाँक कर देखें ,
                  बसा है अक्स उनका ही और वो,सुन्दर,हसीं चेहरा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-