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मंगलवार, 21 मई 2013

बरसों बीते

           
 बरसों बीते ,बरस बरस कर 
कभी दुखी हो ,कभी हुलस कर 
जीवन सारा ,यूं ही गुजारा ,
हमने मोह माया में फंस कर 
कभी किसी को बसा ह्रदय में ,
कभी किसी के दिल में बस कर 
कभी दर्द ने बहुत रुलाया ,
आंसू सूखे,बरस बरस कर 
और कभी खुशियों ने हमको ,
गले लगाया ,खुश हो,हंस कर 
हमने जिनको दूध पिलाया ,
वो ही गए हमें  डस डस  कर 
यूं तो बहुत हौंसला है पर,
उम्र गयी हमको बेबस  कर 
और बुढ़ापा ,लाया स्यापा ,
कब तक जीयें,तरस तरस कर 
ऊपर वाले ,तूने  हमको ,
बहुत नचाया,अब तो बस कर 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुढापे की थकान

    

आजकल हम इस कदर से थक रहे है 
ऐसा लगता ,धीरे धीरे   पक रहे  है 
बड़े मीठे और रसीले हो गये  है,
देखने में पिलपिले  से लग रहे है
दिखा कर के चेहरे पे नकली हंसी ,
अपनी सब कमजोरियों को ढक रहे है 
अपने दिल का गम छुपाने के लिए,
करते सारी कोशिशे  भरसक रहे  है 
नहीं सुनता है हमारी कोई भी , 
मारते बस डींग हम नाहक रहे है 
सर उठा कर आसमां को देखते,
अपना अगला आशियाना  तक रहे है 
'घोटू'करना गौर मेरी बात पर ,
मत समझना यूं ही नाहक बक रहे है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

गलियों का मज़ा

           

प्रेम की सकड़ी गली में दो समा सकते नहीं ,
कृष्ण राधा मिलन साक्षी ,कुञ्ज की गलियाँ रही 
रसिक भंवरा ही ये अंतर बता सकता है तुम्हे 
फूलों में ज्यादा मज़ा या फिर मज़ा कलियों में है 
काजू,पिश्ता,बादामों का ,अपना अपना स्वाद पर 
सर्दियों में,धुप में ,फुर्सत में ,छत पर बैठ कर 
खाओगे,मुंह से लगेगी ,छोड़ पाओगे नहीं,
छील करके खाने का ,जो मज़ा मूंगफलियों में है 
कंधे से कंधा मिलाओ,भले टकरा भी गये 
कोई कुछ भी ना कहेगा ,गली का कल्चर है ये 
इसलिये लगती भली है 'घोटू'हमको ये गली,
वो मज़ा या थ्रिल कभी आता न रंगरलियों में है 
बनारस की सकड़ी गलियाँ ,प्यारी रौनक से भरी ,
दिल्ली की वो चाट पपड़ी ,परांठे वाली  गली 
जलेबी सी टेडी मेडी ,पर रसीली स्वाद  है ,
नहीं सड़कों पर मिलेगा, जो मज़ा  गलियों में है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मन सनातन

   

विषय भोगों से सना तन 
 मन सनातन 
मांस मज्जा से बना तन ,
 मन सनातन 
ज्ञान गीता भागवत का सुना करते 
और सपने स्वर्ग के हम बुना  करते 
मंदिरों में चढ़ाया करते   चढ़ावा 
कर्मकांडों को बहुत देते बढ़ावा 
तीर्थाटन ,धर्मस्थल ,देवदर्शन 
मगर माया मोह में उलझा रहे मन 
सोच है  लेकिन पुरातन 
मन सनातन 
कामनाये  ,काम की, हर दम मचलती
लालसाएं कभी भी है  नहीं घटती 
और जब कमजोरियों का बोध आता 
कभी हँसते ,या स्वयं पर क्रोध  आता 
इस तरह संसार के   बंध  गए बंधन
समस्यायें आ रही है नित्य  नूतन 
तोड़ बंधन ,करें चिंतन 
मन सनातन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  
 

सीटियाँ

    
जवानी में खूब हमने बजाई थी सीटियाँ,
                     लड़कियों को छेड़ने या फिर  पटाने  वास्ते 
और चौकीदार भी सीटी बजाता रात भर,
                     चौकसी रखने को  और सबको जगाने वास्ते 
स्कूलों के दिनों में ,करने किसी को हूट हम,
                      जीभ उंगली से दबाते ,निकलती थी सीटियाँ 
और पिक्चर हॉल में,हेलन का आता डांस जब ,
                      याद है हमको बहुत थी बजा करती  सीटियाँ 
सनसनाती जब  हवाएं,बजाती है सीटियाँ,
                        करके विसलिंग ,कई आशिक ,बात दिल की सुनाते 
डरते है सुनसान रस्ते पर अकेले लोग जब,
                          पढ़ते है हनुमान चालीसा या सीटी   बजाते 
होठ करके गोल हम सीटी बजा कर बोलते ,
                          यारों 'आल इज वेल'है ,ये सीटियों का खेल है 
चलने से पहले या रस्ता साफ़ करने के लिए,
                            हमने देखा,हमेशा सीटी बजाती रेल है 
बस में कंडक्टर बजाता ,सड़क पर ट्राफिक पुलिस ,
                              ड्रिल कराता 'पी .टी .'टीचर और बजाता सीटियाँ 
और प्रेशर कुकर में जब ,जाते सब्जी ,दाल पक,
                               ध्यान तुम्हारा दिलाने  ,वो बजाता सीटियाँ  
जब किसी को देख कर के,मन में सीटी सी बजे ,
                                तो समझ लो इश्क का है पहला सिग्नल मिल गया 
उस हसीना स्वीटी से ,शादी करी,सीटी बजी ,
                                तो गए तुम काम से और तुम्हारा दिल भी गया 
फाउल हो तो छोटी बजती ,गोल तो लम्बी बजे,
                                 बजाता रहता है सीटी ,रेफरी फूटबाल  में 
इश्क की या चौकसी की,मस्ती की या खुशी की ,
                                  सीटियाँ तो बजती ही रहती ,सदा ,हर हाल में 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   
 

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