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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

मौसम बदला

मौसम बदला
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धूप कुनकुनी,नरम नरम दिन,और सौंधी सौंधी सी राते
साँझ चरपरी,भोर रसभरी,और खट्टी मीठी सी बातें
गरम जलेबी,गाजर हलवा,स्वाद भरा मतवाला  मौसम
छत पर धूप,तेल की मालिश,चुस्ती फुर्ती वाला मौसम
है स्वादिष्ट,चटपटा, मनहर,प्यारा मौसम मादकता का
और उस पर से छोंक लगा है, मधुर तुम्हारी सुन्दरता का
ये मौसम जम कर खाने का,छकने और  छकाने का है
नरम रजाई,कोमल कम्बल,तपने और तपाने का है
प्यारा प्यारा ठंडा मौसम,पर इसकी तासीर गरम है
सिहरन सी पैदा कर देती,तेरे तन की गरम छुवन है
तन की ऊष्मा,मन की ऊष्मा और फिर अपनेपन की ऊष्मा
मादक नयन ,गुलाबी डोरे,बढ़ जाती प्रियतम की सुषमा
सर्दी के आने की आहट,सुबह शाम है ठण्ड गुलाबी
गौरी के गोरे गालों की,रंगत होने लगी   गुलाबी
दिन छोटा,लम्बी है रातें,है ये मौसम मधुर मिलन का
सूरज भी जल्दी घर जाता,पल्ला छोड़ ,ठिठुरते दिन का
इस मतवाली,प्यारी ऋतू में,आओ हम सब मौज मनाएं
त्योंहारों का मौसम आया,आओ हम मिल दीप जलाएं

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'



बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

हे अग्नि देवता!

हे अग्नि देवता!
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हे अग्नि देवता!
शारीर के पंचतत्वों  में,
तुम विराजमान हो,
तुम्ही से जीवन है
तुम्हारी ही उर्जा से,
पकता और पचता भोजन है
तुम्हारा स्पर्श पाते ही,
रसासिक्त दीपक
 ज्योतिर्मय हो जाते है,
दीपवाली छा जाती है
और,दूसरी ओर,
लकड़ी और उपलों का ढेर,
तुमको छूकर कर,
जल जाता है,
और होली मन जाती है
होली हो या दिवाली,
सब तुम्हारी ही पूजा करते है
पर तुम्हारी बुरी नज़र से डरते है
इसीलिए,  मिलन की रात,
दीपक बुझा देते है
तुम्हारी एक चिंगारी ,
लकड़ी को कोयला,
और कोयले को राख बना देती है
पानी को भाप बना देती है
तुम्हारा सानिध्य,सूरत नहीं,
सीरत भी बदल देता है
तो फिर अचरज कैसा है
कि तुम्हारे आसपास,
लगाकर फेरे सात,
आदमी इतना बदल जाता है
कि माँ बाप को भूल जाता है
बस पत्नी के गुण गाता है
इस काया की नियति,
तुम्ही को अंतिम समर्पण है
हे अग्नि देवता! तुम्हे नमन है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


 

सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

कान्ता कर करवा करे, सालो-भर करवाल ||

रविकर की प्रस्तुति

 (शुभकामनाएं)
कर करवल करवा सजा,  कर सोलह श्रृंगार |
माँ-गौरी आशीष दे,  सदा बढ़े शुभ प्यार ||
   करवल=काँसा मिली चाँदी
कृष्ण-कार्तिक चौथ की,  महिमा  अपरम्पार |
क्षमा सहित मन की कहूँ,  लागूँ  राज- कुमार ||
Karwa Chauth
(हास-परिहास)
कान्ता कर करवा करे, सालो-भर करवाल |
  सजी कन्त के वास्ते, बदली-बदली  चाल ||
  करवाल=तलवार  
करवा संग करवालिका,  बनी बालिका वीर |
शक्ति  पा  दुर्गा   बनी,  मनुवा  होय  अधीर ||
करवालिका = छोटी गदा / बेलन जैसी भी हो सकती है क्या ?

 शुक्ल भाद्रपद चौथ का, झूठा लगा कलंक |
सत्य मानकर के रहें,  बेगम सदा सशंक ||

  लिया मराठा राज जस, चौथ नहीं पूर्णांश  |
चौथी से ही चल रहा,  अब क्या लेना चांस ??


(महिमा )  
नारीवादी  हस्तियाँ,  होती  क्यूँ  नाराज |
गृह-प्रबंधन इक कला, ताके पुन: समाज ||

 मर्द कमाए लाख पण,  करे प्रबंधन-काज |
घर लागे नारी  बिना,  डूबा  हुआ  जहाज  ||

रविवार, 16 अक्टूबर 2011

दूरियॉ

वर्ष 1985 के लगभग लिखी निम्न पंक्तियों को आपके साथ साझा कर रहा हूँ
विकास के युग में माना घट गयी हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की अब बढ गयी हैं दूरियॉ ।।
सूर्य का गोला लटकता है हर इक छत से जरूर ।
किन्तु इतने पास अब रहते नहीं है दिल हुजूर ।।
चॉद तक जाने लगे हैं यान माना बेलगाम ।
पर धरा के चॉद का अब रह गया है सिर्फ नाम ।।
संसार आकर है सिमटता हर सुबह इस मेज पर ।
क्या हुआ अपने बगल में जानेंगे पढकर खबर ।।
शोर पुर्जों का हुआ है इस कदर कुछ बेअदब ।
पंछियों का मधुर कलरव खो गया इसमें अजब ।।
अब धरा लगती खिलौना यूँ सहज हैं दूरियॉ ।
इन्सान से इन्सान की पर बढ गयी हैं दूरियॉ।।

अपहरण


अपहरण

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जो अपनी बहन के अपहरण का
 बदला लेने के लिये,
पृथ्वीराज को हरवा दे,
उसे जयचंद कहते है
और जो खुद अपने मित्र अर्जुन के साथ,
अपनी बहन सुभद्रा को   भगवा दे,
उसे श्रीकृष्ण कहते है
लोगों की सोच में,
या अपहरण अपहरण में कितना अंतर है

मदन मोहन बहेती 'घोटू;

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