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रविवार, 13 अप्रैल 2025

घर का खाना

वही अन्न है, वो ही आटा ,
वही दाल और मिर्च मसाला 
फिर भी हर घर के खाने का,
 होता है कुछ स्वाद निराला 

हर घर की रोटी रोटी का ,
अपना स्वाद जुदा होता है 
घर की रोटी के आटे में,
 मां का प्यार गुंथा होता है 

कोई मुलायम फुल्का हो या
गरम चपाती , टिक्कड़ मोटी 
अलग-अलग पर सबको भाती ,
है अपने ही घर की रोटी

कुछ सिकती है अंगारों पर,
 कोई तवे पर फूला करती 
कोई तंदूरी होती है ,
स्वाद निराला अपना रखती

जला उंगलियां जिसे सेकती 
है मां वो रोटी है अमृत 
ममता के मक्खन से चुपड़ी ,
तुम्हें तृप्त करती है झटपट 

होटल से महंगीसे महंगी 
सब्जी तृप्त नहीं कर सकती 
पकवानों की भीड़ लगी पर 
पेट तुम्हारा ना भर सकती 

सब फीका फीका लगता है,
 घर वाले खाने के आगे 
तृप्त आत्मा हो जाती है 
अपने घर की रोटी खा के 

पांच सितारे होटल वालो 
के गरिष्ठ होते सब व्यंजन 
पर सुपाच्य और हल्का होता 
अपने घर का भोजन हरदम 

जिसके एक-एक ग़ासे में,
 स्वाद भरा हो अपनेपन का 
सबके ही मन को भाता है 
क्या कहना घर के भोजन का

मदन मोहन बाहेती घोटू 

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