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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

अब बुढ़ापा आ गया है

        अब बुढ़ापा आ गया है

फुदकती थी,चहकती थी ,गौरैया सी जो जवानी ,
                       आजकल वो धीरे धीरे ,लुप्त सी  होने लगी है
प्रभाकर से, प्रखर होकर,चमकते थे ,तेजमय थे ,
                        आई संध्या ,इस तरह से ,चमक अब खोने लगी है
'पियू '  पियू'कह मचलता था पपीहा देख पावस ,
                          इस तरह हो गया बेबस ,उड़ भी अब पाता नहीं है
भ्रमर मन,रस का पिपासु ,इस तरह बन गया साधु ,
                           देखता खिलती कली  को,मगर मंडराता  नहीं है
इस तरह हालात क्यों है ,शिथिल सा ये गात क्यों है ,
                            चाहता मन ,कर न पाता ,हुई इसी बात क्या है
देख कर यह परिवर्तन,बड़ा ही बेचैन  था मन,
                             समय ने हँस कर बताया ,अब बुढ़ापा आ गया है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

निद्रा के पंचांग

                 निद्रा के पंचांग
                            १
                         तन्द्रा
     एक तरफ दिल ये कहता है,सोना बहुत जरूरी
     लेकिन एक तरफ होती है ,जगने की मजबूरी
     जागे भी हम,ऊंघें भी हम,झपकी भी है आती
     ऐसी हालत जब होती है ,तन्द्रा है कहलाती
                              २
                          करवट  
       कभी सोचते है ,इधर आयेगी   वो 
        कभी सोचते है ,उधर   आयेगी  वो
        इधर ढूंढते है,उधर  ढूंढते  है
         हम नींद को हर तरफ ढूंढते है
        इन्ही उलझनों में पड़े जब भटकना
       इसको ही कहते है ,करवट बदलना
                               ३ 
                          खर्राटे
        मन में जो भी  दबी हुई , रहती  है  बातें
        कुछ मजबूरी वश जिनको हम कह ना पाते 
        जल्दी जल्दी  बाहर निकले ,जब सो जाते
         समझ में नहीं आते ,बन  जाते है खर्राटे
                               ४
                         सपने
         मन के अन्दर  की दबी हुई भावनायें
        या किस्से ,अनसुने ,अनकहे ,अनचाहे
         छिपा हुआ डर  और अनसुलझी समस्यायें
        अधूरे अरमान  ,सब,सपने बन कर आये
                               ५
                         नींद
          न इधर की खबर है
          न उधर की खबर है
          पड़ी शांत    काया ,
          बड़ी  बेखबर    है
          दबी बंद आँखों में ,
          सपने है रहते 
           रहे शांत तन मन ,
           उसे  नींद  कहते

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
           


रविवार, 28 अप्रैल 2013

मिठाई और घी -खूब खा और खुश होकर जी

        मिठाई और घी -खूब खा और खुश होकर  जी

हमारे डाक्टर साहब ने हमें चेक किया ,
और सलाह दी
खाना बंद करो मख्खन,शक्कर और घी
और मिठाइयाँ ,जैसे गुलाबजामुन और जलेबी
वर्ना हो जायेगी 'ओबेसिटी'
बदन हो जाएगा भारी
और लग जायेगी 'डाइबिटीज 'की बिमारी
हमने कहा'डाक्टर साहब ,
हमें बतलाइये एक बात
हमारे श्री कृष्ण भगवन
बचपन से ही खूब खाते थे ,
दूध,दही,मिश्री और मख्खन
तभी इतनी ताकत आई थी कि ,
उंगली पर उठालिया था गोवर्धन
और किया था कंस का हनन
इतनी गोपियों के संग रचाते थे रास
आठ पटरानियो के ह्रदय में करते थे वास
सोलह हज़ार रानियों के थे पति
अच्छे खासे 'स्लिम' थे,
उन्हें तो कोई बिमारी नहीं लगी
हमारे  गणेशजी भगवान,गजानन कहलाते
जम  कर के खूब मिठाई है  खाते
लड्डू और मोदक का भोग है लगाते
और हर कार्य में पहले है पूजे जाते
तो मख्खन मिश्री खानेवाले कृष्ण भगवान कहाते है
और मोदक प्रेमी गजानन ,अग्र देव बन पूजे जाते है
ये सब मख्खन और मिठाई की महिमा है
और हमें आप कहते है ,ये खाना मना है
हमारा मन तो ये कहता है ,
मख्खन,मिठाई और घी
जी भर के खा ,और खुश होकर जी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जिन्दगी

            जिन्दगी

बड़ा सीधा जिंदगी का फलसफा है
वही मिलता ,जो कि किस्मत में लिखा है 
होना है जो भी वो हो कर के रहेगा,
सभी बातें ,पहले से ही तयशुदा है 
जो तुम्हारा है तो तुमको ही मिलेगा ,
नाम उस पर अगर तुम्हारा गुदा है
एक ही माँ बाप की संतान है पर,
किस्मतें हर एक की होती जुदा है
बुरा मत सोचे किसीका ,खुद गिरोगे ,
तुम्हारे भी सामने ,गड्डा खुदा है
अपना अपना लेखा  सब ही भोगते है,
कोई खुश है और कोई गमजदा है
करम कर,उस पर नतीजा छोड़ दे तू,
भाग्य में जो है,वही देता खुदा है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तरक्की

       तरक्की

भीड़ जबसे ये उमड़ने लग गयी है
सड़क की चोडाई बड़ने लग गयी है
इस तरह इमारतों के उगे  जंगल,
गाँव की सूरत बदलने  लग गयी है 
मुश्किलों से साइकिल आती नज़र थी ,
कई कारें वहां चलने   लग गयी है
जलते थे मिटटी के चूल्हे जिन घरों में ,
अब वहां पर गेस  जलने लग गयी है
तेल के दिये  नहीं अब टिमटिमाते,
ट्यूब लाइट अब चमकने लग गयी है
कभी उपले थापती आती नज़र थी ,
बेटियाँ ,स्कूल पढने लग गयी है
नमस्ते अब हाई ,हल्लो ,हो गया है ,
चिठ्ठियाँ ,ई मेल बनने लग गयी है
 तरक्की ने इस तरह है  पग पसारे ,
सभी की हालत सँवरने  लग गयी है
'घोटू'लेकिन  भाईचारा हो गया गुम ,
बात बस ये मन में खलने लग गयी है
घोटू 

काश !

         काश !
नीम के पेड़ो  पर ,आम जो लग जाये
या कौवे के तन पर,मोर पंख उग आये
सारी स्विस की बेंकें ,हो जायेगी  खाली,
नेताओं के मन में ,ईमान जो जग जाये
घोटू

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

बारह की बारहखड़ी

        बारह की बारहखड़ी

गणित में गिनती का एक सरल नियम है ,
कि एक के बाद ,दो आता है
मगर जब एक ,दो के साथ आता है ,
तो बारह बन जाता है
और बारह का अंक ,
बड़ा महत्वपूर्ण अंग है मानव जीवन का
क्योंकि यह प्रतीक है परिवर्तन का
बारह बरस की उम्र के बाद ,
लड़का हो या लड़की ,
सब में परिवर्तन आने लगता है
किशोर मन ,यौवन की पगडण्डी पर ,
आगे की तरफ ,बढ़ जाने लगता है
विश्व के हर केलेंडर में ,
बारह महीने ही होते है और,
बारह महीनो बाद ,वर्ष बदल जाता है
नया साल आता है
और घडी भी ,सिर्फ,
बारह बजे तक ही समय दिखाती है
और उसके बाद फिर एक बजता है,
और नए समय की गति चल जाती है
इस ब्रह्माण्ड में भी ,बारह राशियाँ होती है ,
जो जीवन के चक्र को चलाती है
और जब ग्रह  ठीक होते है,
किस्मत बदल जाती है
म्रत्यु के उपरान्त ,
  बारहवें के   बाद ,
परिवार ,जाने वाले को भूल जाता है
और फिर से नया सिलसिला ,
आरम्भ  हो जाता है
जब जब भी पृथ्वी पर ,पाप बढ़ा है
और भगवान को अवतार लेना पड़ा है
तो उन्होंने भी बारह के अंक पर ध्यान दिया है
श्री राम ने दिन के बारह बजे  और
श्री कृष्ण ने रात के बारह बजे अवतार लिया है
और दुष्टों का नाश किया है
परिवर्तन लाकर ,शांति का प्रकाश दिया है
इसलिए मेरी समझ में यह आता है
की बारह के बाद,हमेशा परिवर्तन आता है
बारह की बारहखड़ी ,
जिसने भी  पढ़ी है
उसके हमेशा पौबारह हुए है ,
और तकदीर ऊपर चढ़ी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



बुढापे के हालात

बुढापे के हालात

आप को अब क्या बताएं,क्या कहे ,
                                उम्र के इस दौर के हालात क्या है
जिन्दगी के सिर्फ बीते छह दशक है ,
                                लोग कहते है बुढापा  आ गया   है
अनुभव और निपुणता से भर गए जब ,
                                 'इम्प्लोयर ' ने 'रिटायर' कर दिया है
बच्चे भी तो ज्यादा कुछ सुनते नहीं है ,
                                   सोचते है बुड्ढा अब  सठिया गया है
बुढ़ापे की उम्र ऐसी आई है ये ,
                                      बड़े उलटे  अनुभव  होने लगे  है
नींद यूं तो आजकल कम  आ रही है ,
                                      हाथ,पाँव मगर अब सोने लगे है 
आजकल सिहरन बदन में नहीं होती ,
                                         झुनझुनी पर पाँव में आने लगी है
हुस्न क्या देखें किसी का ,खुद की ही अब ,
                                          आईने में शकल धुंधलाने  लगी है
यूं तो सब कडवे अनुभव हो रहे है,
                                            खून में मिठास पर बढ़ने  लगा है
काम का प्रेशर तो सारा  घट गया है,
                                            मगर 'ब्लड प्रेशर' बहुत बढ़ने लगा है
शान से सर पर सजे थे बाल काले ,
                                            उनकी रंगत में सफेदी  आ गयी  है
हसीनाएं कहती है अंकल या बाबा ,
                                           ऐसी  हालत  अब हमें  तडफा गयी है
मन तो करता है बहुत कुछ करें लेकिन,
                                           आजकल कुछ भी तो कर पाते नहीं है
भूख भी कम हो गयी ,पाबंदियां है,
                                           मिठाई ,पकवान कुछ    खाते  नहीं है
तरक्की की सीढियां तो चढ़ गए पर ,
                                            सीढियां  चढ़ने में दिक्कत आ रही है
मेहनत  अब हमसे हो पाती नहीं है ,
                                               जरा चल लो,सांस फूली जा रही है
देख कर बेदर्दियाँ इस जमाने की ,
                                             दर्द सा अब सीने में उठने  लगा है
अपने ही अब बेरुखी दिखला रहे है,
                                               इसलिए दिल आजकल घुटने लगा है
बांसुरी अब बेसुरी सी हो गयी है ,
                                            जिधर देखो उधर ही अब समस्या   है
आप को अब क्या बताएं,क्या कहें,
                                             उम्र के इस दौर के   हालात क्या है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
                                              

                                  

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

सूरज,बादल और आज की राजनीति


      सूरज,बादल और  आज की राजनीति

जब सत्ता का सूरज उगता ,बादल  जैसे कितने ही दल
उसके आस पास मंडराते ,रंग बदलते  रहते  पल,पल
और सत्ता का समीकरण जब ,पूरा होता,सूरज बढ़ता
तो वह सर पर चढ़ जाता है,प्रखर चमकता,दिखला ,दृढ़ता
और जब ढलने को होता है ,बादल पुनः नज़र आते है
आड़े आते है सूरज के , रंग  बदलते   दिखलाते   है
आज देशकी राजनीती का ,परिवेक्ष है कुछ  ऐसा ही
छुटभैये कितने ही दल का ,है  चरित्र   बादल  जैसा ही

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


बुधवार, 17 अप्रैल 2013

विवाह संस्कार

              विवाह संस्कार

बड़े प्यार से  पाला  पोसा ,बड़ी  हुई  तो  दान  कर  दिया
पहुँच पिया घर ,अपना तन मन,मैंने पति के नाम कर दिया 
कल तक मात पिता थे प्यारे ,और अब साजन ,बसे हुये मन
बचपन सारा, जहाँ गुजारा , लगे  पराया  सा वो    आँगन
केवल फेरे ,सात अगन के ,इतना   सब कुछ  कर देते है
देते छुड़ा ,  बाप माँ का घर  ,एक दूसरा   घर     देते   है
कुछ रीतों से , और मन्त्रों से ,जीवन भर का बंधन  बंधता
यह विवाह के ,संस्कार की ,कितनी सुन्दर ,धर्म व्यवस्था

घोटू 

सस्ता सोना -मंहगा सोना

       सस्ता सोना -मंहगा सोना

एक तरफ ये कहती सोना ,आजकल सस्ता हुआ ,
और दूजी तरफ कहती ,      नींद है आती   नहीं
तुमको भी अब लग गये  सब ,अमीरों के शौक है ,
सस्ती चीजें हो अगर तो ,वो पसंद   आती नहीं 
उसपे ,सोने से बदन को ,सजाने के वास्ते,
सोने के जिद पर  अड़ी हो,तुमको सोना चाहिये ,
मै जो सोने की कहूं तो ,नखरे दिखलाने लगो,
सोना जब तक ना दिला दूं ,पास तुम आती नहीं

घोटू 

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

वरिष्ठ नागरिक संगठन

                 वरिष्ठ नागरिक संगठन

मिल के सब बूढ़े इकट्ठे हो गये  
इस बहाने हंसी ठट्ठे   हो  गये
ढलते सूरज में  चमक सी आ गयी ,
दांत तन्हाई के    खट्टे  हो गये
याद  कर बीती जवानी की उमर ,
सब के सब फिर जवां  पट्ठे हो गये
दूसरों की सुनी ,अपनी भी कही ,
रोज के सब दूर   रट्टे  हो  गये
एक से दुःख,दिक्कतें ,गम,एक ही ,
थैली के सब  ,चट्टे  बट्टे हो गये
लगे जब से खाने है  ताज़ी  हवा ,
देख लो ,सब हट्टे कट्टे हो गये
दही थे,मख्खन जवानी में गया ,
अब तो सेहतमंद  मठ्ठे  हो गये
खाने थे जो जवानी में खा लिये ,
'घोटू 'अब अंगूर  खट्टे हो   गये

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 



रविवार, 14 अप्रैल 2013

पति पत्नी का रिश्ता

घोटू के छक्के
पति पत्नी का रिश्ता

कितनी ही होती रहे ,भले रार,तकरार
पति पत्नी के बीच में ,हरदम रहता प्यार
हरदम रहता प्यार ,पति पत्नी है ऐसे
जल संग मछली और बादल संग बिजली जैसे
कह 'घोटू'कविराय ,बड़ा ये रिश्ता पावन
एक दूसरे बिन ना सजते ,सजनी ,साजन
घोटू

दरार

           दरार
रिश्ते ,
सीमेंट की छत की तरह होते है ,
जिनमे कई बार ,
अहम् की तपिश से ,
दरारें पड़  जाती है
और फिर जब,
कडवाहट की बारिश होती है ,
तो सपाट छत तो ,
जल्दी से सूख जाती है
पर दरारें सूखने में,
 बड़ा समय लगाती है
इसीलिये रिश्तों को ,
हमेशा सीधा और सपाट रहने दो
खुशियों से भरने  दो
और उनमे दरार मत पड़ने दो

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 

व्यथा -विवाहित पुरुष की

             व्यथा -विवाहित पुरुष की

मै तुमसे कुछ बोल न पाता
ऐसा बंधा हुआ पहलू से ,इधर उधर भी डोल न पाता 
मै तुमसे कुछ  बोल न  पाता
बंधा तुम्हारे रूप जाल में ,मन्त्र मुग्ध सा ,होकर पागल
भँवरे जैसा आसपास ही , तुम्हारे मंडराता  हर पल
तुम्हारे हर एक इशारे पर मै हरदम  रहूँ  नाचता
शादी कर के लगता है यूं ,कैदी हूँ मै  सजा याफ्ता
बात तुम्हारी ,सर आँखों पर ,वो सब करता ,जो तुम कहती
फिर भी क्यों तुम्हारी भृकुटी ,हरदम तनी  हुई है रहती
तुम्हारे मन के अन्दर क्या ,मै यह  कभी टटोल न पाता
मै  तुमसे कुछ बोल न पाता
क्या सचमुच में ,तुमको आता ,करना कोई जादू टोना
खेलो मेरे जज्बातों से ,जैसे मै हूँ कोई   खिलोना
भूल भुलैया दिल तुम्हारा ,भटक रहा मै इसके अन्दर
अपनी हालत क्या बतलाऊं ,मेरी गति है सांप ,छुछंदर
शादी,लड्डू ,जो खाये ,पछताये,ना खाये ,पछताये  ,
कभी नाव पर गाडी रहती ,कभी नाव गाडी पर आये
बड़ी जटिल ,शादी की ग्रंथि ,मै यह ग्रंथि खोल न पाता
मै तुमसे कुछ बोल न पाता
मेरी क्या ,हर एक पति की ,हो जाती है हालत ऐसी
बाहर भले शेर सा गरजे,घर में होती ,गत चूहे   सी
फिर भी तुम्हारी हर हरकत ,मुझको हरदम लगती प्यारी
दिखते कितने सुन्दर चेहरे, पर तुम लगती सबसे न्यारी
ये रिश्ता ,पति और पत्नी का ,होता ज्यों ,पानी और चन्दन
और ये सप्तपदी के फेरे ,बांधे जनम जनम का बंधन
सुनते ,पति पत्नी की जोड़ी ,ऊपर वाला ,स्वयं बनाता
मै तुमसे कुछ बोल न पाता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

परहेज

                 परहेज

आम अलबेला ,चीकू,केला ,
                      और अंगूर  मुझे  वर्जित है
तला  समोसा ,उत्पम ,डोसा ,
                       ना खाऊ ,इसमें ही हित  है
मीठा हलवा ,पूरी तंलवा ,
                        से करना परहेज  पडेगा
गरम परांठे ,खा ना पाते ,
                        क्योंकि 'क्लोरोस्ट्रल' बढेगा
पालक,दालें ,खाना टालें ,
                         'यूरिक एसिड 'बढ़ जाएगा
और टमाटर ,खाना बचकर ,
                         'ब्लेडर'में पत्थर  आयेगा
न तो इमरती,ना ही जलेबी ,
                         ना गुलाब जामुन खा पाता
कोई मिठाई ,जाये  न खायी ,
                         'शुगर'का 'लेवल 'बढ़ जाता
चाट पकोड़ी ,खाना छोड़ी,
                           'एसिडिटी ' बढ़ा  देती है 
कुल्फी,चुस्की ,खाना 'रिस्की'
                           'टोन्सिल ' लटका देती है
पीज़ा ,बर्गर ,रहना बच  कर,
                            ये तो है दुश्मन सेहत के
घी और मख्खन ,खा न सके हम ,
                            'ओबेसिटी'बढ़ेगी  झट से
ये ना खाऊं ,वो ना खाऊ,
                             रहूँ सदा परहेजी बन के
मै क्यों करके,इतना डर के,
                               मजे  उठाऊ ना जीवन के 
सिर्फ हवा खा ,या फिर गम खा ,
                                जीवन जाता नहीं गुजारा
रस जीवन के ,ले लूं जम के ,
                                मानव तन ना मिले दुबारा
जो मन भाये,सरस सुहाये ,
                               वो खाने से ,नहीं डरूं मै
अगर मौत का ,दिन है पक्का ,
                                तो काहे  परहेज  करूं मै

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
       
                         
                    

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

बोलो मै तुमसे क्या बोलूँ

    बोलो मै तुमसे क्या बोलूँ

                 बोलो मै तुमसे क्या बोलूँ
                 मन की कितनी परतें खोलूँ 
जब तुम आये,मुस्काये थे
मेरे    मानस पर छाये थे 
दुनिया कुछ बदली बदली थी
उम्मीदों ने करवट ली थी
सपन सुनहरे ,मन में जागे
लेकर अरमानो के धागे 
                  मैंने जो भी ख्वाब बुने थे ,
                   उन्हें उधेड़ू ,फिर से खोलूँ        
                   बोलो मै तुमसे  क्या  बोलूँ
शायद किस्मत का लेखा  था 
मैंने जब तुमको देखा था
मेरा दिल कुछ ऐसा धड़का
ना कुछ सोचा,ना कुछ परखा
और तुम्हे दिल दे बैठी बस
लुटा दिया जीवन का सब रस
                     उस नादानी,पागलपन पर ,
                      हसूं बावरी सी या रो लूं
                       बोलो मै तुमसे क्या बोलूँ
भले ,बुरे,सुन्दर जो भी थे
पर तुम तो रस के लोभी थे
दिखला कर के प्यार घनेरा
घूँट घूँट रस पी कर मेरा
तुमने अपनी प्यास बुझाली
गए छोड़ कर मुझको खाली
                     छिन्न भिन्न अब टूट गया दिल,
                       टुकड़े टुकड़े ,कहाँ टटोलूं
                       बोलो मै  तुमसे क्या बोलूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

लीन्हो वोटर मोल

     घोटू के पद

लीन्हो वोटर  मोल 

माई री  मै तो लीन्हो वोटर मोल  
सस्तो महँगो  कछु नहीं देख्यो ,दीन  तिजोरी खोल
आश्वासन को शरबत पिलवा ,मुंह में मिसरी घोल
वादों   की   रबड़ी चटवाई,  मीठा        मीठा  बोल 
मगर विरोधी दल वाले सब ,      पोल रहे है खोल 
टी वी, पेपर वाले भी सब   ,रहे उडाय        मखोल 
चमचे  खन खन खनक रहे है ,मेरी तारीफ़ बोल 
'घोटू'अब वोटर की मर्जी ,जब  आयेगा   पोल
ऊँट कौन करवट बैठेगा ,कोई सके ना बोल 
घोटू

राजकुमार

            राजकुमार
देश वालों रहो होशियार
               यहाँ के हम है राजकुमार  
चला रही मम्मी रिमोट से ये सारी  सरकार       
राज मुकुट हमको पहना दे,कोशिश है इस बार
चाटुकार और चमचों की है ,फ़ौज खड़ी तैयार 
टी वी अपने चर्चे है,  रंगे  हुए   अखबार
ये जनता कितनी भोली है ,चुनती है हर बार
हाथ मिलाने कितने छोटे दल बैठे तैयार
सब पर टांग रखी है सी बी आई की तलवार
अबकी बार यदि जीत गए तो,होगी नैया पार
देश वालों करो इन्तजार ,
                        यहाँ के हम है राजकुमार 
घोटू

नव संवत्सर

       नव संवत्सर

नए वर्ष का करें स्वागत ,हम ,तुम ,जी भर
नव संवत्सर,नव संवत्सर ,नव संवत्सर 
हुआ आज दुनिया का उदभव ,ख़ुशी मनाएं
खेतों में पक गया अन्न नव,ख़ुशी मनाये
किया विश्व निर्माण विधि  ने ,आज दिवस है
शीत ग्रीष्म की वय  संधि है ,आज दिवस है 
शुरू   चैत्र  नवरात्र  हुए,कर  देवी    पूजन
मातृशक्ति और नारी शक्ति का कर आराधन 
हम  समृद्ध       हों,ऊंची उड़े   पतंग हमारी
खुशियाँ फैले, कायम   रहे     उमंग हमारी 
गुड और इमली ,कालीमिर्च ,नीम की कोंपल
खाकर रखें,स्वस्थ जीवन को ,पूर्ण वर्ष भर 
आने वाला वर्ष ख़ुशी दे और हो   सुखकर
नव संवत्सर,नव संवत्सर ,नव संवत्सर
(नूतन वर्ष की शुभ कामनाएं )

मदन मोहन 'बाहेती घोटू'

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

देवताओं से

               देवताओं से

तुमने हमें बनाया है और हमने किया तुम्हारा उदभव
                                                      हम है     मानव 
तुमने हमको पाला पोसा,किया हमारा लालन पालन
हम विष्णु भगवान मान कर करते तुम्हारा आराधन 
तुमसे ही होता है प्रजनन ,जीवन मरण ,तुम्ही पर निर्भर
लिंग स्वरुप पूजते तुमको ,तुम ही महादेव हो शंकर
हम पर जिसने थोड़ा सा भी,कभी कोई उपकार किया है
हमने बना देवता उसको,स्वर्गलोक  में बिठा दिया है
तुम बादल बन करके बरसे ,तप्त धरा को आ सरसाया
हमने तुमको इंद्र बना कर ,स्वर्ग लोक का राज दिलाया
बसे हमारी श्वास श्वास में ,जब तुम हमको देते जीवन
बहते हो शीतल बयार बन,पवन देव कहते तुमको हम
ज्वलनशील तुम तप्त ह्रदय हो ,देते हो उष्मा जीवन को
हमने स्वर्गलोक पहुंचा कर ,अग्नि देवता ,पूजा तुमको
भरे सरोवर,नदिया ,सागर,जल बन कर के प्यास बुझाई
हमने वरुण देवता पद पर ,स्वर्गलोक में जगह दिलाई
सूरज बन देते प्रकाश तुम,आलोकित करते जन जीवन
हम भी तुम्हे  अर्घ्य देते है ,मान देवता ,करते पूजन
और भले ही घटते बढ़ते ,अंध निशा आलोकित करते
चन्द्र देवता मान तुम्हे हम ,तुम्हारा पूजन नित करते
तुम करते हम पर अनुकम्पा ,सुख से भरते हो जन जीवन
हम श्रद्धा से शीश नमा कर,करते तुम्हारा आराधन
ये पक्का विश्वास हमारा ,और हमारी सच्ची निष्ठां
कर देती है ,पाषाणों की ,मूरत में भी,प्राण प्रतिष्ठा
तुम हो तो हम ,हम है तो तुम ,यह अस्तित्व ,परस्पर संभव
                                                     हम है मानव
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

अटर -शटर -एक अनोखा पकवान

         अटर -शटर -एक अनोखा पकवान

आइये-एक नयी डिश का स्वाद लीजिये
एक समोसे पर ,टोमेटो सौस लगा कर ,
उसका चूरा कीजिये
अब उसमे धीरे धीरे ,कोकोकोला मिलाइये 
फिर थोड़ी चाट पकोड़ी और गोलगप्पे लाइये 
अब इसमें पनीर टिक्का मिलाइये
और ऊपर से फलों की चाट से सजाइये
थोड़ी सी देर बाद उस पर
 छोले और पुलाव डालिये मिला कर
अब एक मिस्सी रोटी के टुकड़े कीजिये
और ऊपर से दाल माखनी मिला दीजिये
अब ड्रेसिंग के लिए दो गुलाबजामुन,
चार पांच जलेबी और
 मूंग की दाल का हलवा  चाहिये
और ऊपर से आइसक्रीम से सजाइये
आप कल्पना करो ,इस मिली जुली ,
अटर शटर डिश का स्वाद होगा कैसा ?
मुंह क्यों बना रहे हो ,
मुझे तो खाने को अक्सर ही  मिलता है ऐसा
जी हाँ ! मै आपका पेट हूँ,
ऐसी ही अजीबोगरीब मिली जुली डिशें खाता हूँ
जिव्हा चटकारे ले ले मज़ा उठाती है,
और मै पचाता हूँ
आपको   क्या बतलाऊं ,मै क्या क्या  भुगतता हूँ
इसलिए जब ज्यादा ही ऐसा अंट  शंट,
 खाने को मिलता है,मेरे मन में पीड़ा होती है ,
और मै  दुखता हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

राहुल बाबा की गुहार

          राहुल बाबा की गुहार

मम्मी ,तुम्हारे चमचों ने ,मुझ पर इतना जुलम किया है
बाबा बाबा कहते कहते ,मुझको बाबा   बना दिया  है
मुझको राजपाट दिलवाने ,आगे बढ़ ,डुग डुगी  बजाते
लेकिन नहीं ढूंढते दुल्हन ,दुल्हा राजा मुझे   बनाते
गृहस्थाश्रम की उमर पार करने में बाकी चंद  बरस है
सर के बाल लगे है उड़ने ,मेरी हालत जस की तस  है
बड़े बड़े हो गये भानजे ,जिद करते है ,मामी लाऊं
कैसे मै उनको समझाऊँ ,कैसे निज मन को समझाऊं
इन चमचों के चक्कर में ,मै ,गाँव गाँव भटका करता हूँ
कभी दलित के घर पर खाता ,कभी झोपड़ी में रुकता हूँ
बाबाओं के सभी काम ये  चमचे है मुझसे करवाते
यूं ही बूढा हो जाउंगा ,  ऐसे अपनी   छवि बनाते
मै  तो बड़ा तंग आया हूँ ,पानी पीकर घाट घाट  का
भरमाते है ,मुझे दिखा कर ,सुन्दर सपना राजपाट का
हम तुम जाने ,ये सब चमचे ,केवल मतलब के बन्दे है
मख्खन हमें लगाते रहते ,सत्तालोलुप है ,अंधे है
इसीलिये कृपया मम्मीजी ,अपने लिए बहू ले आओ
सचमुच बाबा ना बन जाऊं ,बाबापन  से मुझे बचाओ
इसी तरह बाबा बन कर के ,जीवन जाता नहीं जिया है
मम्मी तुम्हारे चमचों ने,मुझ पर कितना जुलम किया है

घोटू

रविवार, 7 अप्रैल 2013

शहद का छत्ता

           शहद का छत्ता

राहुल बाबा ने दिया ,बहुत सही सन्देश
छत्ता है ये   शहद का ,    तेरा मेरा देश 
तेरा मेरा देश   और  जनता  मधुमख्खी
बूँद बूँद दे टैक्स  ,शहद  से इसको भरती 
कह 'घोटू' कविराय  और ये सत्ता वाले
शहद चुरा कर सारा ,स्विस बेंकों में डाले
घोटू

ज्वार -भाटा

     लहत तट संवाद -2
       ज्वार -भाटा 
तुम निर्जीव समुन्दर तट हो ,
                 और लहर हूँ ,मै मदमाती
मै ही हरदम,आगे बढ़ कर ,
                मधुर मिलन को,तुमसे आती
 कुछ पल लेते ,बाहुपाश में,
               पी रस मेरा ,   मुझे  छोड़ते         
सचमुच तुम कितने निष्ठुर हो,
               मेरा दिल ,हर बार तोड़ते 
मै ही सदा ,पहल करती हूँ,
                 कभी न बढ़ तुम आगे आये
पहल न करते ,बैठे रहते ,
                  आस मिलन की ,सदा लगाये
तट मुस्काया,हंस कर बोला ,
                 ना  ना ऐसी   बात  नहीं  है
चाव मिलन का ,जितना तुम में,
                  मेरे मन में ,  चाव  वही है
उठता 'ज्वार' तुम्हारे दिल में,
                  तो तुममे उफान आ जाता
और जब आता है 'भाटा 'तो ,
                    मै  नजदीक  तुम्हारे आता   

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

वक़्त

         वक़्त
नचाता   अपने  इशारों  पर  हमें  ये  वक़्त है
ये किसी पर मुलायम है और किसी पर सख्त है 
बदल देता एक पल में ,आपकी तकदीर को,
ये कभी रुकता नहीं है ,ये बड़ा कमबख्त   है
बहुत कहती घडी टिक टिक ,मगर ये टिकता नहीं,
ना किसी से द्वेष रखता ,और ना अनुरक्त है
इसका रुख ,सुख दुःख दिलाता ,ख़ुशी लाता और गम ,
दिला देता ताज ओ तख़्त ,हिला  देता  तख़्त है
'घोटू' इस पर  जोर कोई का कभी चलता नहीं,
इसके आगे ,आदमी क्या है ,खिलोना फक्त है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रीत की रीत

               
               
                     लहर   तट  संवाद 
                         प्रीत की रीत  
    ( बाली समुद्र तट  पर   लिखी  रचना )
       
  कहा तट से ये लहर ने 
  सुबह,शामो दोपहर  में                   
  मै  तुम्हारे  पास आती
  तुम्हारा  सानिध्य पाती
  मिलन  क्षण भर का हमारा 
   बड़ा सुन्दर,बड़ा प्यारा 
 मै बड़ी बेताब ,चंचल
मिलन सुख के लिये  पागल 
और पौरुष की अकड से
पड़े तुम  चुपचाप ,जड़ से
दो कदम भी नहीं चलते
बस मधुर रसपान करते
तुम्हारे जैसे दीवाने
प्रीत की ना रीत जाने
मिलन का जब भाव आता
कली  तक अली स्वयं जाता
प्यार पाने को तरसते
धरा पर बादल  बरसते
एक मै ही बावरी हूँ
तुम्हारे पीछे पड़ी हूँ
विहंस कर तट ने कहा यों
पूर्ण विकसित पुष्प पर ज्यों
तितलियाँ चक्कर लगाती
उस तरह तुम पास आती
प्यार का सब पर चढ़े रंग
प्यार करने का मगर ढंग
अलग होता है सभी का
कभी मीठा,कभी  तीखा
और तुम नाहक ,परेशां
सोचने लगती हो क्या क्या
प्यार में हम तुम सने है
एक दूजे हित  बने है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

जड़ों से बिछड़ने की कीमत


कंधे पर बस्ता ,
हाथों में गुलेल ,
लौट कर आते थे ,
पाठशाला से ,
धूल भरी पगडण्डी ,
पैरों में रबर की चप्पलें ,
बेतरतीब बाल ,
किनारे के पेड़ो पर ,
कभी चढ़ जाना ,
चिड़िया के घोसले में ,
ना जाने क्या तलाशना ,
पाठशाला के मास्साब को देख कर ,
छुप जाना , पतली मजबूत डंडियों के हाथों पर निशान,
अठखेली करते मस्ती से घर पहुचना ,
सच कितना आनंद था ,
अब तो अकल्पनीय लगता है यह सब ,
चकाचक चमकते जूते,
झकाझक कपडे ,
गले में टाई,
पीठ पर बस्ते का बोझ ,
बस के भीतर की घुटन ,
मास्साब नहीं , सर का बेगानापन ,
अब पढने में मज़ा नहीं आता ,
फिर कब मिलेगी वो पतली डंडियों की मार ,
पगडंडियों का अपनापन ,
काली डामर की सड़कों से,
जुड़ नहीं पाया कभी नाता ,
अ आ के बदले ए बी से शुरुआत ,
हमें अपनी ही संस्कृति से ,
बिछोह के रास्ते पर ले जाती ,
जड़ों से बिछड़ने की कीमत चुकानी पड़ेगी ,
नहीं हम जड़ों से बिछड़ने की कीमत तो ,
चुका ही रहे हैं ,

कापीराईट @विनोद भगत

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