नशा -बुढ़ापे का
आदमी पर जब नशा छाता है
वो ठीक से चल भी नहीं सकता ,
डगमगाता है
उसे कुछ भी याद नहीं रहता ,
सब कुछ भूल जाता है
मेरी माँ भी ठीक से चल नहीं सकती ,
डगमगाती है
और मिनिट मिनिट में ,
सारी बातें भूल जाती है ,
नशे के सारे निशां उसमे नज़र आते है,
उमर नब्बे की में भी ऐसा भला होता है
मुझे तो ऐसा कुछ लगता है कि मेरे यारों ,
बुढापे का भी कोई ,अपना नशा होता है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
किताब मिली - शुक्रिया - 20
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तू है सूरज तुझे मालूम कहां रात का दुख
तू किसी रोज़ मेरे घर में उतर शाम के बाद
लौट आए ना किसी रोज़ वो आवारा मिज़ाज
खोल रखते हैं इसी आस पे दर शाम के बाद
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8 घंटे पहले
बहुत ही सुन्दर पद,आभार.
जवाब देंहटाएंहर उम्र का अपना एक नशा होता है ...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ...