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गुरुवार, 5 जुलाई 2012

प्राण प्रिये

वेदना संवेदना निश्चल कपट
को त्याग बढ़ चली हूँ मैं
हर तिमिर की आहटों का पथ
बदल अब ना रुकी हूँ मैं
साथ दो न प्राण लो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

निश्चल हृदय की वेदना को
छुपते हुए क्यों ले चली मैं
प्राण ये चंचल अलौकिक
सोचते तुझको प्रतिदिन
आह विरह का त्यजन कर
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

मौन कर हर विपट पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
--- दीप्ति शर्मा 

रोबोट बन कर रह गये

      रोबोट बन कर रह गये

चाहते थे मंगायें जापान से रोबोट हम,
                  शादी करली और खुद  रोबोट बन कर रह गये
हम तो थे बाईस केरट, जब से पर हीरा जड़ा,
                चौदह केरट हुए ,बाकी खोट बन कर   रह गये
कभी किशमिश की तरह थे,मधुर ,मीठे, मुलायम,
                एसा   बदला  वक़्त ने, अखरोट  बन कर रह गये
बुदबुदा सकते हैं लेकिन बोल कुछ सकते नहीं,
              किटकिटाते दांतों के संग,  होंठ  बन कर रह गये
गाँधी जी का चित्र है पर आचरण विपरीत है,
               रिश्वतों में देने वाले    ,नोट बन कर  रह गये
आठ दस भ्रष्टों में से ही नेता चुनना है तुम्हे,
               लोकतंत्री व्यवस्था के, वोट बन कर रह गये
कभी टेढ़े,कभी सीधे,कभी चलते ढाई घर,
               बिछी शतरंजी बिसातें,  गोट बन कर रह गये
चाहते थे बनना हम क्या, और 'घोटू' क्या बने,
               टीस देती हमेशा वो चोंट    बन कर  रह गये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'     

कौनसा वो तत्व है-जिसमे छुपा अमरत्व है?

      कौनसा वो तत्व है-जिसमे छुपा अमरत्व है?

समंदर में भरा है जल

जल से फिर बनते है बादल
और वो बादल बरस के,
पानी की बूंदों  में झर झर
कभी सींचें ,खेत बगिया
कभी जमता बर्फ बन कर
कभी नदिया बन के बहता,
और फिर बनता समंदर
ये ही है जीवन का चक्कर
जो कि चलता  है निरंतर
ये ही तो वो तत्व है
जिसमे बसा अमरत्व है
बना है माटी का ये तन
बड़ा क्षण भंगुर है जीवन
पंच तत्वों से बनी है,
तुम्हारी काया अकिंचन
सांस के डोरी रुकेगी,
जाएगी जब जिंदगी थम
जाके  माटी में मिलेगा,
फिर से माटी जाएगा बन
ये ही जीवन का चक्कर
जो कि चलता है निरंतर
ये ही तो वो तत्व है
जिसमे बसा अमरत्व है
 हवायें जीवन भरी है,
सांस बन कर सदा चलती
और कार्बन डाई ओक्साइड
बनी बाहर   निकलती
फिर उसे ये पेड़ ,पौधे,
पुनः ओक्सिजन बनाये
विश्व में हर एक जगह ,
पर सदा रहती हवायें
ये ही है जीवन का चक्कर
जो कि चलता है निरंतर
ये ही तो वो तत्व है
जिसमे बसा  अमरत्व है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


बुधवार, 4 जुलाई 2012

खोज- भगवान् के कण की

      खोज- भगवान् के कण की

बनायी किसने ये दुनिया, पहाड़,नदिया,समंदर

पेड़ और पौधे   बनाये ,कीट, पक्षी , जानवर 
चाँद तारों से सजाया , प्यारा सा सुन्दर जहाँ
बनाये आदम और हव्वा, उनको फिर लाया यहाँ
और फिर इन दोनों ने आ,गुल खिलाये  नित नये
मिले दोनों  इस तरह ,मिल कर करोड़ों  बन गये
इतना सब कुछ रचा जिसने,शक्ति वो भगवान है
आज उस भगवान के कण ,खोजता इंसान है
समाया  कण कण में जो,जिसके अनेकों वेश है
वो अगोचर है अनश्वर, आत्म भू,अखिलेश है
खोज में जिसकी लगे है,ज्ञानी,ध्यानी,देवता
कोई ढूंढें  काबा में , काशी में  कोई   ढूंढता
करो तुम विस्फोट कितनी कोशिशें  ही रात दिन
उस अनादि ईश्वर का पार पाना  है   कठिन
उसको पाना बड़ा मुश्किल,ढूंढते  रह जाओगे
सच्चे मन से,खुद में झांको,वहीं उसको पाओगे

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
 

मार दी

        मार दी

हुस्नवाले हो गए है ,देखो कितने बेरहम,

              गिराई बिजलियाँ हम पर, नज़र तिरछी मार दी
वो भी थे कुछ में और हम भी थे कुछ सोच में,
               जरा सी गफलत हुई, आपस  में टक्कर   मार दी
 देख उनको आँख फडकी,बंद सी कुछ हो गयी,
                हम पे है आरोप हमने ,  आँख उनको   मार दी
व्यस्त थे हम देखने में ,जलवा उनके हुस्न का,
                 दिलजले ने मौका पा,पाकिट हमारी मार दी
दिखाये थे हमको उनने,सपन सुन्दर,सुहाने,
                  वक़्त कुछ देने का आया ,उनने डंडी मार दी
वोट के बदले में हमको नेताजी ने क्या दिया,
                    दाम चीजों के बढ़ा,   मंहगाई की बस मार दी
बड़ा लम्बा लेक्चर था,और वो भी बेवजह,
                    हमने देखा,हमसे कितनो ने थी झपकी  मार दी
आ रहा था बड़ा आलस,मूड था आराम का,
                     बिमारी के बहाने हमने     भी छुट्टी   मार दी
लोग इतने प्रेक्टिकल हो गये है आजकल,
                     जिसको भी मौका मिला  तो दूसरों की  मार दी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'         

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