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मंगलवार, 20 अगस्त 2013

जगाया न होता

           जगाया न होता

हमें नींद से जो जगाया न होता
हिला  इस तरह जो उठाया न होता
बड़ी मुद्दतों में जो आया था हमको ,
वो सपना हमारा ,भगाया न  होता
और फिर ये कह के,कि डर लग रहा है,
हमें अपने सीने लगाया न होता
दिखा करके अपनी मोहब्बत के जलवे ,
मेरी हसरतों को ,जगाया न होता
लगा कर अगन ना यूं अपने बदन से ,
लबों से वो अमृत ,पिलाया न होता
तो फिर हमसुहबत हुए हम न होते ,
मज़ा वो मोहब्बत का आया न होता
बड़ी देर तक मै  ,यूं सोया न रहता ,
थकावट में एक दिन ,यूं जाया न होता

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

सावन की बूँदा बांदी में

  सावन की बूँदा  बांदी  में

इस सावन की ,मन भावन की,प्यारी सी बूंदाबांदी में
मेह न मदिरा बरस रही है ,प्यारे मौसम बरसाती में बी
जल की बूँदें ,कुंतल से बह, गाल गुलाबी पर  ढलकेगी
कोमल ,मतवाले कपोल पर ,मादक सी मदिरा छलकेगी
प्यासे होठों से पी मधुरस ,अपनी प्यास बुझायेंगे  हम
भीग फुहारों में तेरे संग ,भीग प्रेमरस  जायेंगे हम
तेरे वसन ,भीग जब तेरे ,चन्दन से तन को चूमेंगे
देख नज़र से ,तेरा कंचन,हम भी ,पागल हो झूमेंगे
जाने क्या क्या,आस लगा कर ,रख्खी है  मन उन्मादी ने
इस सावन की ,मन भावन की,प्यारी सी बूंदाबांदी में

मदनमोहन बाहेती'घोटू' 

वक़्त हम कैसे काटे

      वक़्त हम कैसे काटे

पढो अखबार का हर पेज ,तुम नज़रें गढा  कर के ,
पज़ल और वर्ग पहेली को ,भरो,आनंद   आयेगा
ले रिमोट टी वी का ,बदलते तुम रहो चेनल ,
कोई न कोई तो प्रोग्राम,पसंद का मिल ही  जाएगा
कभी चाय,कभी काफी ,कभी  लस्सी या ठंडाई ,
पकोड़े साथ में हो तो ,मज़ा फिर दूना  आयेगा
भले बैठे निठल्ले हो ,चलाते पर रहो मुंह को ,
वक़्त आराम से आराम करते ,कट ही  जाएगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

किसी का फोन आ जाये

            किसी का फोन आ जाये

मचलती कामनाये हो ,किसी का फोन आ जाए
उबलती भावनाएं हो,  किसी का फोन आ जाए
उफन के दूध बर्तन से ,निकल कर गिरनेवाला हो,
बहुत हम हडबडाये हो,किसी का फोन आ जाए
कभी जब सोने को होते ,आँख लगने ही वाली हो ,
और घंटी घनघना जाए,किसी का फोन आ जाए
खबर अच्छी, बुरी हो या कि वो फिर रांग नंबर  हो,
बहुत गुस्सा हमें  आये ,किसी का फोन आ जाए
कलम ले हाथ में हमने ,लिखा हो मुखड़ा कविता का,
बोल बन भी न पाए हो, किसी का  फोन आ जाए
आज की जिंदगानी में ,फोन है इस कदर छाया ,
कोई आये न आये पर ,किसी का फोन आ जाए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 19 अगस्त 2013

घन बरसे

               घन बरसे

घन बरसे पर मन ना हरषा
पिया मिलन को रह रह तरसा
घिर घिर बादल रहे घुमड़ते ,
पर मन था सूने  अम्बर सा
    भीगे वृक्ष ,लता सब भीगी
    होकर तृप्त ,धरा सब भीगी
    लेकिन अविरल रही बरसती ,
     मेरी आँखे ,भीगी,भीगी
भीगी मेरी चूनर सारी ,
नीर नयन से इतना बरसा
घन बरसे पर मन ना हरषा
        सावन आया ,बादल आये
        वादा किया ,पिया ना आये
        जितना ज्यादा बरसा पानी,
        उतने  ज्यादा वो याद  आये
बादल गरजे ,बिजली कडकी ,
मन में लगा रहा एक  डर सा
घन बरसे पर मन ना  हरषा

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

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