भाग-2
अंग-देश में अकाल
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||
झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||
खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||
जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||
अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||
शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||
शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||
भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||
कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||
कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||
अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||
धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||
कैकय का गेंहूँ वणिक, बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||
अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||
लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||
किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||
लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||
शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||
कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||
सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||
भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||
शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||
तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||
रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||
शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||
शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||
कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||