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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

जीवन के दोहे


जीवन के दो खाश रंग, समझो मेरे यार |
एक रंग है दोस्ती, दूजा रंग है प्यार |1|

जिंदगी एक संघर्ष है, कदम कदम पे सीख |
मेहनत से सबकुछ मिले, बिन श्रम मिले न भीख |2|

जीवन का है मूल-मंत्र, सत्य, अहिंसा, धीर |
शौर्य, शील और साहस, सबको करता वीर |3|

जीवन जीने का ढंग, जीवन ही सीखलाए |
कोई जीवन पूर्व से, सीख के न आए |4|
जीवन चलता जायेगा, ज्यों नदिया की धार |
बांधे से भी ना रुके, यही है जीवन सार |5|

मत नापो लम्बाई को, नापो तुम गहराई |
जीवन को पा जाओगे, थाह जहाँ पे आई |6|

जीवन में सब सीख लिया, सुन ओ मेरे भाय |
एक चीज़ ना आ पाया, कैसे जिया जाय |7|

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

'तर्पण..'

... "क्यूँ हर बार.. इच्छाओं का तर्पण करूँ.. खुशियों का समर्पण करूँ.. अस्तित्व का अर्पण करूँ.. क्यूँ.. घटती नहीं.. सामाजिक दृष्टिकोण की सीमा..!!!" ...

सोमवार, 28 नवंबर 2011

तेरे शहर का क्या नाम है?


तेरे शहर का क्या नाम है?
क्या वहां दो पल का आराम है?
यहाँ तो हर शहर मदहोश है,
न किसी को चैन है, न ही कहीं होश है I 

क्या वहां लोग दिल खोल के हँसते हैं?
मानव के रूप में मानव ही बसते हैं?
यहाँ तो हर शहर के लोग तनाव ग्रस्त हैं,
औरों की बात नहीं, सब खुद से ही त्रस्त हैं I 

अपराध और घोटाले क्या वह कुछ कम है?
सरकारी तंत्रों में क्या थोडा बहुत दम है?
इधर का हाल-बेहाल, अनियमितता का जाल है,
नाचती है आम जनता, नेता ठोकते ताल है I 

अगर हो ऐसा शहर तो जरा मुझे भी बताओ,
दो पल के लिए सही, एक बार तो बुलाओ,
इधर तो शहरों की संख्या बढती ही जा रही है,
पर आत्मीयता जैसी चीज़े कहीं खोती ही जा रही है I 

सोमवार, 21 नवंबर 2011

हस्ती हमारी


आशियाँ हमने बना रखा है तूफानों में,
और तूफानों को समेट रखा है अरमानो में,
हस्ती अब तो इतनी है हम दीवानों में,
अँधेरे में भी तीर लगते हैं निशानों में |

आशाएं हैं भरी हमारी उड़ानों में,
हौसलों की उठान है आसमानों में,
साहस है भरा, जो बिकते नहीं दुकानों में,
अक्सर तौलतें हैं खुद को पैमानों में |

देखेंगे कितना है दम इन हुक्मरानों में,
दिखायेंगे कितना है जोश हम जवानों में,
क्या रखा है अब उन पुराने फसानों में,
वो कर दिखायेंगे जो नहीं हुआ जमानों में |

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

एक इंजिनियर की आत्मकथा


इंजिनीयर्स डे पर "मोक्षगुंडम विश्वेस्वरैया", जिनके जन तिथि पर ये मनाया जाता है, को सादर नमन |
पेश है मेरी एक रचना |

मैं एक इंजिनियर हूँ,
जिंदगी के हर एक क्षेत्र में, कभी जूनियर तो कभी सीनियर हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

बचपन से लेके आज तक,
पढ़ाई से कभी रिश्ता न गया,
किताबों और कंप्यूटर में घुसा, कहने को मैं superior हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

चार साल वो कॉलेज के,
मस्ती में ही उड़ते गए,
कंपनी दर कंपनी रगड़ता हुआ, मैं अजीब creature हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

माँ-बाप के हरेक सपने,
पुरा किया पर साथ न रहा,
सब कुछ पाकर भी खोया हुआ, बहता हुआ मैं river हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

प्यार दोस्ती भी खूब किया,
शादी-बच्चे भी संभाला है,
जिम्मेदारी से भागा नही, मैं ख़ुद अपना career हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

पैसों की तो कमी न हुई,
पर परिवार संग रह न पाया,
भाग-दौड़ में भागता हुआ, चलता हुआ मैं timer हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

हर एक रूप जिंदगी का,
देखा है मैंने करीब से,
हर कष्टों को झेला मैंने, हर प्रॉब्लम से मैं familiar हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ।

बुढ़ा हुआ तब पीछे देखा,
हाथ में कुछ न साथ में कुछ,
भटक-भटक के रुक सा गया, पड़ा हुआ एक furniture हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ |

मौत की घड़ी जब पास है आई,
पाने को कुछ न खोने को कुछ,
सबकी ही तरह रवाना होता, आसमान के मैं near हूँ,
मैं एक इंजिनियर हूँ |

(ये एक आम इंजिनियर के मन की उस समय की सोच है जब वो पुरी जिंदगी बिताने के बाद मरने के कगार पर होता है। वो एक मध्यम वर्गीय परिवार से होके भी एक इंजिनियर तो बन जाता है पर जिंदगी भर वो 'आम' ही रह जाता है। )


गुरुवार, 1 सितंबर 2011

कवि का प्यार.......(सत्यम शिवम)

कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेड़बुन में वो है लाचार,
अपनी पीड़ा लेखनी को क्या बताऊँ,
साथी को अपना साथ कैसे समझाऊँ।
मेरी पहचान है तेरे बगैर,
उस दीप का जो बाती के बिन क्या अँधेरा दूर करे,
मेरा संगीत है तेरे बगैर,
उस गीत सा जो ताल के बिन क्या मधुर रस शोर करे।

तू राग है,और मै तेरा हमराज हूँ,
कैसे कहूँ मेरी कविता का बस तू ही साज है।

कुछ कहना चाहता हूँ मै,
अपनी प्रेम गाथा,
पर लेखनी से कैसे कहूँ दिल की व्यथा।

वो तो बस शर्मा के हँस देती है,
मेरी हर कविता को नया रँग वो देती है।

चाहता हूँ कर दूँ प्यार का  इज़हार,
बस डरता हूँ क्या होगा इसका प्रतिकार।

यदि लेखनी मुझसे रुठ कर मुँह फेर ले,
कैसे सजाऊँगा फिर विचारों को शेर में।

शब्दों को गढ़ कैसे मुझे लुभाती है,
कविता से कवि को कैसे कैसे सपने दिखाती है।

क्षण-क्षण थिरक नर्तकी सी,
वो नृत्यांगना मेरे दिल पे,
कामदेव के बाण चलाती है।

मै लिखना चाहता हूँ कुछ और,
वो लिख देती है कुछ और ही,

मै कहना चाहता हूँ कुछ और,
वो सुन लेती है कुछ और ही।

कँचन कामिनी की तलाश थी,
जो तुमपे ही आ के खत्म है,
मेरी कविता की तो तू ही साँस थी,
फिर क्यों दिल में ये जख्म है।

मेरी लेखनी तू ही तो मेरा अभिमान है,
आ बस जा शब्दों में,
तू ही तो मेरी कविता की जान है।

बस एक तमन्ना दिल में रह गयी अधूरी,
कर दे मेरे जीवन को भी तू पूरी-पूरी।
मेरी संगिनी बन लेखनी तू ब्याह आ,
तुझसे कवि की हर एक आश है जुड़ी।

मै जानता हूँ कि मेरा प्यार है थोड़ा अटपटा,
पर क्या करुँ तुम बिन ना,
कोई दिल में बसा।

तू ही मुझे दुल्हन सी लगती है,
तेरे बगैर कोई कविता ना सुझती है।

जुबां रख कर भी मै बेजुबान हूँ,
लेखनी के बिना,
तो मै कविता से अनजान हूँ।

मीलों की दूरी,
कविता से कवि की हो जाती है,
जब लेखनी सही वक्त पर,
साथ नहीं निभाती है।

काव्य का संसार


अनुपम, अक्षय होता है ये काव्य का संसार,
अखिल जगत में अकथ, अकाय और निराकार |

साहित्य की यह विधा अनूठी, पद्य भी कहाय,
हृदय से उत्थित, सरस शब्दों में उकेरा जाय |

भावों की ये मंजूषा, मञ्जीर, मधुर मानिक,
मुतक्का साहित्य का दृढ, मनन करो तनिक |

अमरसरित सी पावन, जनश्रुत ये अपार,
अद्भूत, असम, अनुरक्त है ये काव्य का संसार |


(शब्दार्थ: मञ्जीर=मनोहर, मुतक्का=खम्भा, अमरसरित=गंगा, जनश्रुत=प्रसिद्द, अनुरक्त=प्रेम युक्त )

स्मरण करो सिया राम का

स्मरण करो सिया राम का,
स्मरण करो सिया राम का,
कृपा सिन्धु गुण धाम का;
उल्टा जपके भी तर जाते,
पावन से उस नाम का |
स्मरण करो सिया राम का |


घट-घट में वे बसने वाले,
श्रद्धा सुमन वे देने वाले;
शिव भी जिनको जपते हैं,
पुरोषोत्तम घनश्याम का |
स्मरण करो सिया राम का |


असुरों का वध करने वाले,
धरनि का दुःख हरने वाले,
हनुमान जस भक्त हैं जिनके,
त्रिपुरारी भगवान् का |
स्मरण करो सिया राम का |


शबरी के फल खाने वाले,
उच्च चरित दर्शाने वाले;
भरत, लखन सम भ्रात जो पाए,
रघुकुल नायक राम का |
स्मरण करो सिया राम का |


धनुष बाण जिन हस्त को सोहे,
अनुपम रूप जगत को मोहे;
त्रिलोकी होकर भी मानव,
बन गए उस मतिमान का |
स्मरण करो सिया राम का |

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