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बुधवार, 27 अप्रैल 2016

खीज

खीज

मेरे घर की बालकनी में ,
एक कबूतर आता जाता
 और हर दिन ही अपने संग में,
कोई  कबूतरनी भी लाता
दोनों संग संग दाना चुगते ,
चोंच लड़ाते ,उड़ जाते थे
कभी एक दूजे के संग मिल ,
अपने पंख फड़फड़ाते  थे
बड़ा मनचला ,रोमांटिक था ,
वह कपोत ,एसी करनी थी
हर चौथे दिन ,संग में उसके ,
होती नयी कबूतरनी थी
उसका यह रोमांस देख कर ,
मुझ को मज़ा लगा था आने
उसकी रोज प्रेमलीलायें ,
मुझे बाद में लगी खिजाने
क्योंकि मुझे चिढ़ाने लगता ,
मेरे अंदर ,छुपा कबूतर
ताने देता ,कहता देखो ,
उसमे,तुममे ,कितना अंतर
बंधे हुए इतने वर्षों से ,
तुम हो एक कबूतरनी संग
एक उसका जीने का ढंग है ,
एक तुम्हारे जीने का ढंग
क्या मन ना करता तुम्हारा ,
कभी,कहीं भी,किसी बहाने
मिले कबूतरनी भी तुमको ,
कोई नयी सी ,चोंच लड़ाने
तुम डरपोक और कायर हो,
संकोची हो ,घबराते हो
सद्चरित्र की बातें करके ,
अपने मन को समझाते हो
इसीलिए वो जब भी आता ,
ऐसा लगता ,मुझे चिढ़ाता 
मेरी मजबूरी ,कमजोरी ,
की रह रह कर याद दिलाता
अपने मन की खीज मिटाने ,
और छुपाने को बदहाली
कोई कबूतर ना आ पाये ,
इसीलिये ,जाली लगवाली

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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