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सोमवार, 19 जनवरी 2015

उचटी नींद

        उचटी नींद

जब नींद कभी उड़  जाती है
तो कितनी ही भूली बिसरी ,यादें आकर जुड़ जाती है
फिरने लगते है एक एक कर, मन की माला के मनके
तो सबसे पहले याद हमें ,आने लगते दिन बचपन के
गोबर माटी से पुता हुआ ,वह घर छोटा सा, गाँव का
गर्मी की दोपहरी में भी वो सुख पीपल की छाँव का 
वह बैलगाड़ियों पर चलना,वो रामू तैली की घानी
मंदिर की कुइया पर जाकर ,वो हंडों  में भरना पानी
करना इन्तजार आरती का,लेने  प्रसाद की एक चिटकी
रौबीली डाट पिताजी की ,माताजी की मीठी झिड़की
वो गिल्ली ,डंडे ,वो लट्टू,वो कंचे ,वो पतंग बाज़ी
भागू हलवाई की दूकान  की गरम जलेबी वो ताज़ी
निश्चिन्त और उन्मुक्त सुहाना ,प्यारा  बचपन मस्ती का
बस पलक झपकते बीत गया,जब आया बोझ गृहस्थी का
रह गया उलझ कर यह जीवन,फिर दुनिया के जंजालों में
कुछ दफ्तर में ,कुछ बच्चों में,कुछ घरवाली,घरवालों में
कुछ नमक तैल के चक्कर में ,कुछ दुःख ,पीड़ा ,बिमारी में
प्रतिस्पर्धा आगे  बढ़ने की ,कुछ झंझट ,जिम्मेदारी मे
पग पग पर नित संघर्ष किया ,तब जाकर कुछ उत्कर्ष हुआ
मन चाही मिली सफलता तो ,इस  जीवन में कुछ हर्ष हुआ
सुख तो आया ,उपभोग मगर ,कर पाऊं ,नहीं रही क्षमता
हो गया बदन था जीर्ण क्षीर्ण ,कठिनाई से लड़ता लड़ता
कुछ घेर लिया बिमारी ने ,आ गया बुढ़ापा कुछ ऐसा
कुछ बेगानी संतान हुई ,जब सर पर चढ़ ,बोला पैसा
कुछ यादें शूलों सी चुभती ,तो कुछ यादें सहलाती है
जब नींद कभी उड़ जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

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