फितरत
चुगलखोर चुगली से,
चोर हेराफेरी से,
बाज नहीं आता है
कितना ही भूखा हो,
मगर शेर हरगिज भी,
घास नहीं खाता है
रंग कर यदि राजा भी,
बन जाए जो सियार,
'हुआ'हुआ' करता है
नरक का आदी जो,
स्वर्ग में आकर भी,
दुखी रहा करता है
लाख करो कोशिश तुम,
पूंछ तो कुत्ते की,
टेडी ही रहती है
जितनी भी नदियाँ है,
अन्तःतः सागर से,
मिलने को बहती है
एक दिवस राजा बन,
भिश्ती भी चमड़े के,
सिक्के चलवाता है
श्वेत हंस ,बगुला भी,
एक मोती चुगता है,
एक मछली खाता है
अम्बुआ की डाली पर,
कूकती कोयल पर,
काग 'कांव 'करता है
फल हो या फलविहीन,
तरुवर तो तरुवर है,
सदा छाँव करता है
महलों के श्वानों की,
बिजली का खम्बा लख,
टांग उठ ही जाती है
जिसकी जो आदत है,
या जैसी फितरत है,
नहीं बदल पाती है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
1412- पता ही खो गया
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*रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’*
*सब भाव खो गए*
* जीवन खो गया अचानक भला ये क्या-क्या हो गया! जब भाव थे मरे, भाषा भी मरी*
*हर बाट हो गई*
*काँटों से भर...
20 घंटे पहले
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