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रविवार, 31 जुलाई 2016

कुछ चोर तुम्हारे है मन में

          कुछ चोर तुम्हारे है मन में

ना आता नृत्य तुम्हे ,बतलाते टेडापन है आंगन में
तुम सबको चोर समझते हो ,कुछ चोर तुम्हारे है मन में

तुम  ही हो केवल दूध धुले ,तुम्हारी सोच अनूठी है
तुम ही हो सच्चे हरिश्चन्द्र ,ये सारी दुनिया झूंठी है
बाकी सारे है कामचोर  ,कर्तव्यनिष्ठता बस तुम में
सब के सब ही है नालायक ,है बची शिष्टता बस तुम में
इतना जो अहम पाल रख्खा,एक दिन तुम को ना ले डूबे
ऐसा ना हो इस चक्कर में, रह जाए धरे  सब मनसूबे
तुम तोड़फोड़ कर उलझ रहे हो जोड़तोड़ की उलझन में
तुम सबको चोर समझते हो ,कुछ तुम्हारे है मन में
कुछ कमियां सब में होती है ,कोई कितना भी अच्छा हो
जरूरत पर झूंठ बोल देता ,कोई  कितना भी सच्चा हो
थे बड़े युधिष्ठिर धर्मराज ,क्या झूंठ न उनने बोला था
अश्वत्थामा हो गया हतः ,सुन हृदय  द्रोण का डोला था
औरों की गलती ढूंढ ढूंढ ,कब तक मन को बहलाओगे
कर देखो आत्मनिरीक्षण तुम,खुद में सौ कमियां पाओगे
तब शायद तुम भी सोचोगे ,जीते आये हो किस भ्रम में
तुम सबको चोर समझते हो ,कुछ चोर तुम्हारे है मन में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

तू तड़ाक

                       तू तड़ाक

वो तू तड़ाक पर उतर गए,मैंने जो उनको 'तू' बोला
बोले बेइज्जत किया हमे ,तुमने जो हमको 'तू 'बोला
मै बोला कहता 'आप'अगर,तो भी  तुम बुरा मान जाते
है आप पार्टी से नफरत  ,तुम कोंग्रेस  के  गुण  गाते
मै तुम्हे नहीं कह सकता तुम,यह तुच्छ शब्द ,तुम हो महान
मै नहीं चाहता था किंचित ,करना तुम्हारा हनन ,मान
जो प्रिय है उसको 'तू' कहते ,मैं अपनी माँ को' तू 'कहता
अपने बच्चों को 'तू' कहता ,उस परमेश्वर को 'तू' कहता
इसलिए तुम्हे 'तू' कह मैंने ,दिखला अपना सब प्यार दिया
ईश्वर वाला संबोधन दे  ,है  तुम्हारा सत्कार किया
और बिन सोचे और समझे ही,तुम बैठ गए हो बुरा मान
तुम आदरणीय और प्यारे ,लगते हो मुझको श्रीमान

घोटू

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

कविता की बरसात

      कविता की बरसात

बात बचपन की करें क्या ,वो जमाना और था
जवानी में, सर पे ,जिम्मेदारियों का जोर था
हुए चिता मुक्त हम जब बच्चे सेटल  हो गए
साठ  से ऊपर हुए और  हम रिटायर  हो गए
आजकल स्वच्छन्द होकर जी रहे हम जिंदगी
थोड़ा सा आराम,मस्ती,कुछ खुदा की  बन्दगी
कोई पाबन्दी नहीं,खुद पर खुदी का राज  है
उम्र भर की कमाई का खा रहे हम ब्याज है
भावनाएं जब घुमड़ती है हृदय  आकाश में
बरसती है ,बन के कविता ,एक नए अंदाज में
बरसते बूंदों में रिमझिम,हृदय के जज्बात है
इसलिए ही कविता की हो रही बरसात  है

मंडन मोहन बाहेती'घोटू'


जाने क्या क्या बातें आती

जाने क्या क्या बातें आती

मेरे मन में जाने क्यों क्यों,जाने क्या क्या बातें आती
कोई मुदित कर देती मन को,कोई चुभन देती,तड़फाती

कुछ यादें रंगीन पलों की,कुछ यादें संगीन पलों की
कुछ ऐसी ही,इधर उधर की,कुछ गम्भीर हुए मसलों की
कुछ बचपन की नादानी की ,कुछ उस यौवन तूफानी की
कुछ शादी वाले बन्धन की ,और कुछ अपनी मनमानी की
कुछ मस्ती की,कुछ पत्नी के साथ बिताये मधुर क्षणों की
कुछ अपने से बेगानो की ,कुछ बेगाने से अपनों की
कभी हृदय प्रमुदित होता है ,कभी आँख ,आंसू बरसाती
मेरे मन में जाने क्यों क्यों ,जाने क्या क्या बातें आती

कभी गाँव वाले उस घर की ,कुछ उसकी छत,कुछ आंगन की
कुछ बारिश में ,छप छप करते,नाव तैराते ,उस बचपन की
कुछ अ ,आ  इ ई से लेकर ए बी सी डी  पढ़ने तक की
कुछ कॉलेज की,कुछ दफ्तर में ,इतना ऊपर बढ़ने तक की
वाह वाह करते चमचों की ,कुछ गाली देते निंदक की
चलचित्रों सी ,आँखों आगे ,घटनाएं आती अब तक की
कोई हंसाती,कोई रुलाती,और कोई दिल को तड़फाती
मेरे मन में ,जाने क्यों क्यों,जाने क्या क्या,बातें आती
 
जीवन के इस ढलते पल मे ,कौन हमारा ,कौन तुम्हारा
सभी व्यस्त ,अपने अपने में ,यादें ही है एक सहारा
यूं ही बस  यादों में डूबे ,कितना वक़्त गुजर जाता है
कभी नींद सी आ जाती है,मन सपनो से भर जाता है
वो दिन भी अब दूर नहीं है  ,थोड़े दिन के बाद एक दिन
यादों में खोये हम तुम भी ,बन जाएंगे  याद एक दिन
सबकी यही नियति होनी है ,पर ये बात समझ ना आती
मेरे मन में ,जाने क्यों क्यों ,जाने क्या क्या बातें आती

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

हम बात तुम्हारी क्यों माने ?

हम बात तुम्हारी क्यों माने ?

हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
क्या सिर्फ इसलिए कि बूढ़े ,जितने बुजुर्ग थे तुम्हारे
बरसों  से  करते  आये  है , ये  आडम्बर  सारे  सारे
ये पारिवारिक परम्परा ,निभने की आवश्यकता है
आस्था से नहीं निभाया तो ,कोई अनिष्ट हो सकता है
तार्किक बुद्धि से सोचो तो ,ये सब लगते है  बचकाने
हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
हम अगर कहीं जाने को है और बिल्ली रस्ता काट गयी
तुम कहते हो कि रुक जाओ ,यह शकुन हुआ है सही नहीं
जो पड़ा सामने  एकाक्षी  या दिया किसी ने अगर  छींक
तुमको वापस रुकना  होगा ,ये शकुन हुआ है नहीं ठीक
ये तो नित की घटनाएं है ,होती  रहती  है  अनजाने
हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
तुम कहते मन्दिर जाओ पर,यदि सच्ची श्रद्धा ना मन में
तो फिर ढकोसला होता है ,क्या रख्खा है उस पूजन में
ये कृपा  उसी परमेश्वर    की  ,सबके भंडार भर रहे  है
हम उस  पर चढ़ा चंद रूपये ,उसका अपमान कर रहे है
कुछ करते हम दिनचर्या सा ,और कुछ करते है दिखलाने
हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
हम बात तुम्हारी ना सुनते ,टोका करते तुम नित्य हमें
हर बात तुम्हारी मानेंगे ,बस बतला दो  औचित्य  हमें
हम तर्क करें तो बहसबाज ,जो तुम कहते हो वही सही
पर दिल,दिमाग जो ना माने ,वो बात हमे मंजूर नहीं
हम वो सब करने को राजी ,जो सत्य  हमारा दिल जाने
हम बात तुम्हारी क्यों माने ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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