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शनिवार, 19 मार्च 2016

बीबी का एडिक्शन

           बीबी का एडिक्शन

जिस दिन खाने को ना मिलती ,है बीबीजी  डाट हमे ,
     वो सारा का सारा  दिन ही, सूना सूना सा लगता  है
जिस सुबह नहीं हमको मिलती ,उनकी हाथों की बनी चाय ,
     उस दिन गायब रहती चुस्ती ,और मन सुस्ती से भरता है
जिस उनके हाथों छोंकी , है दाल न होती थाली में,
       उस दिन रोटी का टुकड़ा भी,मुश्किल से गले उतरता है
जिस दिन न मिले उनकी झिड़की,खुल ना पाती दिल की खिड़की
      जिस दिन तकरार नहीं होती ,उस दिन ना प्यार उमड़ता है
जिस दिन वो नहीं रूठती है,मिलता ना मज़ा मनाने का ,
      उनकी लुल्लू और चप्पू में  ,आता आनन्द निराला है
वो नाज़ ,अदायें नखरों से हर रोज लुभाती रहती है ,
    हो जाती  मेहरबान जिस दिन ,तो कर देती मतवाला है
जिस दिन ना देती है पप्पी ,वो ऑफिस जाने के पहले ,
   उस दिन जाने क्यों ऑफिस में ,दिन भर झुंझलाहट रहती है
इतना 'एडिक्ट'हो गया हूँ ,मैं इस 'लाइफ स्टाइल 'का ,
   ना चलता उन  बिन काम भले ,कितनी ही खटपट  रहती है

मदन मोहन  बाहेती 'घोटू'        
     

फिसलन

      फिसलन

फिसलता कोई कीचड़ में ,फिसलता कोई पत्थर पर
कोई चिकनाई में  फिसले ,कोई  बर्फीले  पर्वत  पर
कोई  फिसले है चढ़ने में,कोई फिसले उतरने  में
फिसलने कितनी ही आती ,सभी के आगे  बढ़ने में
जो पत्थर पर पड़ा पानी ,फिसलते लोग है अक्सर
बड़ा फिसलन भरा  होता ,है पानी में पड़ा पत्थर
फिसलना एक क्रिया जो,न की जाती पर हो जाती
उन्हें जब हम पकड़ते है,वो हाथों से फिसल  जाती
हसीं हो जिस्म और चेहरा ,फिसलती नज़रें है सबकी
बड़ी फिसलन भरी होती, है ये राहें महोब्बत  की
जुबां  गलती से जो फिसले ,बात में में फर्क हो जाता
हंसाई जग में होती है  और बेड़ा गर्क  हो   जाता
फंसा लालच के चक्कर में,फिसल इंसान जाता है
चंद  चांदी के सिक्कों पर ,फिसल  ईमान जाता है
फिसलती हाथ  से सत्ता और पत्ता कटता है जिनका
उन्हें रह रह सताता है ,जमाना बीते उन दिन का
जवानी जब फिसलती है ,बुढ़ापा  घेर लेता है
अर्श से फर्श पर आना ,जरा सी देर   लेता  है
बड़ी फिसलन है दुनिया में,संभल कर चाहिए चलना
 नहीं तो मुश्किलें  होगी ,पड़ेगा हाथ फिर  मलना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

बुधवार, 16 मार्च 2016

आओ बदल लें खुद को थोड़ा

बड़ी-बड़ी हम बातें करते,
पर कुछ करने से हैं डरते,
राह को थोड़ा कर दें चौड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

ख्वाब ये रखते देश बदल दें,
चाहत है परिवेश बदल दें,
पर औरों की बात से पहले,
क्यों न अपना भेष बदल दें ।

चोला झूठ का फेंक दे आओ,
सत्य की रोटी सेंक ले आओ,
दौड़ा दें हिम्मत का घोड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

एक बहाना है मजबूरी,
खुद से है बदलाव जरुरी,
औरों को समझा तब सकते,
खुद सब समझो बात को पूरी ।

भीड़ में खुद को जान सके हम,
स्वयं को ही पहचान सकें हम,
अहम को मारे एक हथौड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

दो चेहरे हैं आज सभी के,
बदल गए अंदाज सभी के,
अपनी दृष्टि सीध तो कर लें,
फिर खोलेंगे राज सभी के ।

पथ पर पग पल-पल ही धरे यूँ,
जब-जब जग की बात करे यूँ,
क्या कर जब तक दंभ न तोड़ा,
आओ बदल ले खुद को थोड़ा ।

-प्रदीप कुमार साहनी

मंगलवार, 15 मार्च 2016

दादा पोता संवाद

दादा पोता संवाद

दादा से पोते ने पूछा ,
जब आपका था जमाना
न बिजली थी ,न गैस ,
तो फिर कैसे पकता था खाना
दादा ने बतलाया
बेटे ,खाना उन दिनों ,
मिटटी के चूल्हे पर जाता था पकाया
आश्चर्य चकित होकर बोला पोता
ये मिट्टी का चूल्हा है क्या होता
दादा बोले ये चूल्हा ,
मिट्टी से बनी ,U शेप का ,
एक 'थ्री डाइमेंशनल ' बॉडी होती थी ,
जिसके U की इनर 'केविटी' में 'फ्यूल' ,
जो होती थी सूखी लकड़ी या
'काऊडंग' की 'केक '  जिन्हे उपले कहते थे ,
जलाये जाते थे और U के ' अपर सरफेस'पर
पतीली रख कर दाल उबालते थे
और तवा रख कर रोटी बनाई जाती थी ,
जो उपलों के अंगारों पर फुलाइ  जाती थी
पोता बोला 'काउ डंग 'पर रोटी बनाना
कितना 'अन हाइजीनिक 'होता होगा वो खाना
दादा बोले बेटे ,आग में वो ताक़त है
हर चीज को शुद्ध  कर देती है
एनर्जी भर देती है
और उस पर जो रोटी पकती है
तो सौंधी सौंधी खुशबू लिए ,
उसमे बड़ा स्वाद आता है
और साथ में सिलबट्टे पर पीसी चटनी हो
तो सोने में सुहागा है
पोते ने टोका
एक्सक्यूज मी दादा,
ये सिलबट्टा है क्या होता
दादा बोले ये सिलबट्टा ,
'स्टोन एज' का ,एक 'टू पीस'
'इक्विपमेंट 'है होता
जिसका लोअर पार्ट ,जिसे सिल कहते थे ,
होता है एक फ्लेट पत्थर
जिसके 'सरफेस' को ,
'रफ'किया गया होता है टाँच  कर 
और अपर 'पार्ट  भी होता था पत्थर का ,
उसका शेप ऐसा होता था कि,
 दोनों हाथों के पकड़ में आ जाता था
वो बट्टा कहलाता था
सिल और बट्टे के बीच में रख कर ,
धनिया,मिर्ची अदरक आदि मसालों को
क्रश किया जाता था
और बार बार 'फॉरवर्ड और बैकवर्ड ,
एक्शन ' करने पर ,
चटनी बन जाता था
पोते  ने हँस  कर कहा ,
 एक चटनी के लिए आप ,
इतना 'फॉरवर्ड एंड बैकवर्ड'मोशन करते थे 
क्या 'ओन लाइन 'नहीं खरीद सकते थे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ये लललन टॉप होती है

     ये लललन टॉप होती है

नचाती मर्दों को रहती ,उँगलियों के इशारों पर ,
        इन्हे कमजोर मत समझो,ते सबकी बाप होती है
पति मुश्किल का मारा है ,बिना इनके अधूरा है ,
       बटर सी प्यारी लगती है ,ये 'बेटर हाफ ' होती  है
नहीं चुप बैठ सकती है ,बोलना इनकी फितरत है ,
        जलजला आने को होता ,जो ये चुपचाप  होती है
कोई कितना भी फन्ने खां,समझता खुद को हो लेकिन,
        झुका है इनके कदमों में ,ये लललन टॉप  होती है

घोटू 

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