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रविवार, 21 फ़रवरी 2016

अनुभूती

    अनुभूती
 
सरदी  में सरदी  लगती ,गरमी  में गरमी
       अनुभूति हर मौसम की ,तन पर होती है 
कभी हंसाती,कभी रुलाती,कभी नचाती ,
       खुशियां ,गम की अनुभूति ,मन पर होती है   
कभी टूटता ,आहें भरता और तड़फता,
         कभी दुखी जब होता है तो दिल रोता  है
ये दिल अनुभूती का इतना मारा है ,
         पुलकित होता ,खुश होकर पागल  होता है
किन्तु एक वह परमशक्ति जो विद्यमान है ,
       जग के हर प्राणी का जीवन  चला  रही है
अनुभूति जो उसकी सच्चे मन से करलो,
        पाओगे हर जगह ,बताओ कहाँ  नहीं  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

नेताजी की काला सफेद

          नेताजी की काला सफेद             

तुम्हारा क्या गुणगान करें,हर बात निराली ,तुम्हारी
तुम्हारा खून सफ़ेद हुआ और नीयत  है काली,काली
तुम्हारी है काली जुबान ,तुम झूंठ सफ़ेद बोलते  हो
तुम काले कागा,पोत सफेदी ,बन कर हंस डोलते हो
तुम भगत श्वेत हो बगुले से ,मछली पर रहती नज़र टिकी
है नहीं दाल में काला कुछ, काली सारी  ही दाल दिखी
दिखते हो उजले ,पाक ,साफ़,काले भुजंग सी नीयत है
है काले सभी   कारनामे ,कहने की नहीं जरूरत   है
मुंह काला कितनी बार हुआ ,आयी ना तुमको लाज कभी
तुम हो सफेद हाथी जैसे  ,चर रहे  देश की  घास  सभी
है काली भैंस बराबर ही लगता तुमको काला  अक्षर
काले पीले कागज करके ,तुम रहे तिजोरी अपनी भर
सुन बात हमारी चुभती सी ,नेताजी ने ये हमे कहा
शाश्वत सच,काले और सफ़ेद ,का युगोंयुगों से साथ रहा
सूरज की उजली  श्वेत धूप  ,साथी  छाया ,होती काली
है काले बाल ,श्वेत तन पर, आँखों की है पुतली  काली
जल सूखे काले सागर का ,तो बन जाता है श्वेत लवण
काले बादल ,गिरि पर बरसे ,हिम कण सफ़ेद ,बन जाते जम
थे कृष्ण कन्हैया भी काले ,गोरी उनकी राधा ,रुक्मण
माँ  काली ने अवतार लिया था दुष्टों का संहारक  बन
फिर भी समाज सेवक सच्चे ,हम खुद काले से डरते है
हम इसीलिये तो काला धन ,स्विस की बैंकों में धरते है
यह देशभक्ति का सूचक है ,कोई अपराध  जघन्य नहीं
मैं  बोला नेता धन्य धन्य ,तुम जैसा कोई   अन्य नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अगर जो तुम नहीं मिलते

           अगर जो तुम नहीं मिलते

अगर जो तुम नहीं मिलते,तो फिर कुछ भी नहीं होता
तुम्हारे बिन ,  मेरा  जीवन , यूं  ही  ठहरा ,वहीँ  होता
न होती प्रीत राधा की ,तो  वृन्दावन  नहीं होते
न रचता रास ,जमुना तट ,मधुर वो क्षण नहीं होते
तुम्हारे प्यार की गंगा ,न मिलती मेरी यमुना  से,
हमारी  प्रीत  के  पावन ,मधुर  संगम  नहीं   होते
न जाने  तू  कहाँ  होती  ,न  जाने   मैं  कहीं  होता
अगर जो तुम नहीं मिलते तो फिर कुछ भी नहीं होता
मनाने ,रूठने वाले ,वो  पागलपन  नहीं  होते
उँगलियाँ चाटने वाले ,मधुर व्यंजन नहीं होते
ये मेरा जागना ,सोना ,रोज की मेरी दिनचर्या  ,
यूं ही बिखरी हुई रहती ,अगर बंधन नहीं होते
हमारे साथ ये होता ,तो बिलकुल ना सही  होता
अगर जो तुम नहीं मिलते तो फिर कुछ भी नहीं होता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
  

लड्डू और जलेबी

         लड्डू और जलेबी

एक जमाना था हम भी थे दुबले पतले ,
       लगते थे मोहक,आकर्षक ,सुन्दर ,प्यारे
जिसे देख ,तुम रीझी और प्रेमरस भीझी ,
       मिलन हुआ ,हम जीवनसाथी बने तुम्हारे
और आजकल तुमको रहती यही शिकायत,
       फूल गए हम , फ़ैल गया है बदन  हमारा
दौलत ये सब ,सिर्फ बदौलत है तुम्हारी,
         चर्बी नहीं,भरा है तन में  प्यार  तुम्हारा
चखा चाशनी, अपनी रसवन्ती बातों की ,
      स्वर्णिम आभा लिए जलेबी  तुम ना होते
नहीं प्यार का रोज रोज आहार खिलाते ,
       तो फिर गोलमोल  लड्डू से  हम ना  होते

घोटू
            

शहादत

                  शहादत
अपनी रंगत ,अपनी सेहत ,अपनी खुशबू छोड़ कर ,
          भीगता है रोज ,घिसता , साफ़ करता गंदगी
खुद फना हो जाता ,जिससे साफ़ इन्सां  हो सके ,
             ऐसे साबुन की शहादत  को है मेरी बंदगी  

घोटू

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