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शनिवार, 24 जनवरी 2015

केजरीवाल-४ विपरीत परिस्तिथियाँ

    केजरीवाल-४
विपरीत परिस्तिथियाँ
           
अरविन्द  याने की कमल ,
दोनों समानार्थी ,
याने कि भाई,भाई
पर दिल्ली की राजनीति में,
दोनों की लड़ाई
सुबह सुबह ,
सूरज की किरणों के पड़ने से,
'अरविन्द'  खिलता है
पर प्रकृति  का यह नियम,
दिल्ली की राजनीतिमें ,
उल्टा ही  दिखता है
यहाँ पर ,दो किरणे ,
एक किरण वालिया और
एक किरण बेदी  ,
जब से मैदान में उतरी है ,
अरविंद थोड़ा घबराने लगा है
सर पर टोपी और गले में मफलर बाँध,
खुद को किरणों से बचाने लगा है
थोड़ा   कुम्हलाने लगा है
कमल जब तक कीचड़ में है ,
 झुग्गी झोंपड़ियों में है ,
अपनी सुन्दर छवि से ,
सबको लुभाता है
पर कमल ,लक्ष्मीजी का प्रिय है,
 उस पर लक्ष्मीजी  विराजती है,
और उनकी पूजा में,
उन पर चढ़ाया जाता है
लक्ष्मी और कमल का भी ,
ऐसा ही नाता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 19 जनवरी 2015

उचटी नींद

        उचटी नींद

जब नींद कभी उड़  जाती है
तो कितनी ही भूली बिसरी ,यादें आकर जुड़ जाती है
फिरने लगते है एक एक कर, मन की माला के मनके
तो सबसे पहले याद हमें ,आने लगते दिन बचपन के
गोबर माटी से पुता हुआ ,वह घर छोटा सा, गाँव का
गर्मी की दोपहरी में भी वो सुख पीपल की छाँव का 
वह बैलगाड़ियों पर चलना,वो रामू तैली की घानी
मंदिर की कुइया पर जाकर ,वो हंडों  में भरना पानी
करना इन्तजार आरती का,लेने  प्रसाद की एक चिटकी
रौबीली डाट पिताजी की ,माताजी की मीठी झिड़की
वो गिल्ली ,डंडे ,वो लट्टू,वो कंचे ,वो पतंग बाज़ी
भागू हलवाई की दूकान  की गरम जलेबी वो ताज़ी
निश्चिन्त और उन्मुक्त सुहाना ,प्यारा  बचपन मस्ती का
बस पलक झपकते बीत गया,जब आया बोझ गृहस्थी का
रह गया उलझ कर यह जीवन,फिर दुनिया के जंजालों में
कुछ दफ्तर में ,कुछ बच्चों में,कुछ घरवाली,घरवालों में
कुछ नमक तैल के चक्कर में ,कुछ दुःख ,पीड़ा ,बिमारी में
प्रतिस्पर्धा आगे  बढ़ने की ,कुछ झंझट ,जिम्मेदारी मे
पग पग पर नित संघर्ष किया ,तब जाकर कुछ उत्कर्ष हुआ
मन चाही मिली सफलता तो ,इस  जीवन में कुछ हर्ष हुआ
सुख तो आया ,उपभोग मगर ,कर पाऊं ,नहीं रही क्षमता
हो गया बदन था जीर्ण क्षीर्ण ,कठिनाई से लड़ता लड़ता
कुछ घेर लिया बिमारी ने ,आ गया बुढ़ापा कुछ ऐसा
कुछ बेगानी संतान हुई ,जब सर पर चढ़ ,बोला पैसा
कुछ यादें शूलों सी चुभती ,तो कुछ यादें सहलाती है
जब नींद कभी उड़ जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

पिताजी

       पिताजी

पिताजी ,
सख्त थे ,दांतों  तरह,
जिनके अनुशासन में बंध ,
हम जिव्हा की तरह ,
बोलते,हँसते, गाते,मुस्कराते रहे
चहचहाते रहे
और टॉफियों की तरह जिंदगी का
स्वाद उठाते रहे
वो,लक्ष्मणरेखा की तरह ,
हमें अपनी हदें पार करने को रोकते थे,
बार बार टोकते थे
और कई बार हम,
 उनकी सख्ती को,कोसते थे
 पर कभी भी ,जब सख्त से सख्त दांतों में,
दर्द और पीड़ा होती है,
तो वह दर्द कितना असहनीय होता है,
ये वो ही महसूस कर पाता  है ,
जिसके दांतों में दर्द होता है
मुझे  ,उनके चेहरे पर ,
वही पीड़ा दिखी थी
जब शादी के बाद ,
मेरी बहन बिदा हुई थी,
या थोड़े दिन की छुट्टियों के बाद,
मैं और मेरे बच्चे ,
वापस अपनी अपनी नौकरी पर लौटते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

माँ से

          माँ  से
माँ !
तुमने नौ महीने तक ,
अपने तन में मेरा भार ढोया
प्रसव पीड़ा सही और 
मुझे दुनिया में लाने के,
सपनो को संजोया
मुझे भूख लगी तो,
मुझे छाती से लिपटा  दूध पिलाया    
मैं रोया तो ,
मुझे गोदी में ले दुलराया 
मुझे सूखे में सुला कर ,
खुद  गीले बिस्तर पर सोई
दर्द मुझे हुआ ,
और तुम रोई
शीत  की सिहरती रात में,
तुमने बन कम्बल ,
मुझे सम्बल दिया
बरसात के मौसम में,
अपने आँचल का  साया दे,
मुझे भीगने नहीं दिया
गर्मी की दोपहरी में ,
अपने आँचल का पंखा डुलाती रही
अपनी  छत्रछाया में ,
हमेशा मुझे परेशानियों से बचाती रही
माँ,जिस ममता,वात्सल्य से ,
तुमने मुझे पाला है
तुम्हारा  वो प्यार अद्भुत और निराला है
मैं इतना लाड प्यार और कहाँ से पाउँगा ?
क्या मैं कभी इस ऋण को चुका पाउँगा ?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

दुबे जी

                   दुबे जी

एक दुबे वो होते है जो होते तो थे चौबे पर,
     छब्बे बनने के चक्कर में ,रहे सिर्फ दुबे बन के
और दूसरे दुबे वो जो 'डूबे'रहते मस्ती में ,
      इंग्लिश  उच्चारण का चक्कर ,डूबे है दुबे बनके
'दुइ'का मतलब हिन्दी में 'दो','बे' होता दो गुजराती में,
     दुइ से जब 'बे'मिल जाता,दो दूनी चार 'दुबे बन के ,
घर में पत्नी से रहें दबे ,दाबे मन की पीड़ाओं को,
       है दबी हंसीं पर हंसा रहे ,सबको  दबंग 'दुबे बन के

घोटू

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