गांव भरा था लोगों से।
लहलहा रहे थे खेत।
हर आंगन में गाय बंधी थी।
बैल बंधे थे धवल सफेद।
कुछ घरों में मुर्रा भैंसें।
खड़ी हुई थी खाती घास।
बहुएं उनको नहलाती थी।
अंदर चुल्हा करती सास।
बच्चों की किलकारी रह रह।
मिश्री घोले कान में।
सबके अपने खेत हैं।
आम के पेड़ अमरुद के बाग।
अपनी क्यारी फुलवारी है।
सब्जी घर की घर का साग।
घर के अंदर हर बर्तन।
भरा हुआ है दालों से।
ठूंस ठूंस कर कुठार भरे हैं।
नाज झंगोरा दानों से।
कुछ और ड्रम रखे हैं।
उनमें मंडवा भरा पडा।
इस औषधीय सतनाजे से।
कमरा कमरा भरा पड़ा।
कुछ तोमडे रखे हुए हैं।
भरे तिल भंगजीर से।
कुछ कमोले भरे लवालव।
घर के देशी घी से।
बाहर आंगन में है सबके।
एक एक चुल्हा बना हुआ।
दाल का भड्डू सुबह से ही।
उसके ऊपर चढा हुआ।
खाने वाले हर चुल्हे पर।
दस बारह से नहीं हैं कम।
तीन पीढियां साथ में रहती।
बडे प्यार से तो क्या गम?
स्वर्ग सी अनुभूति हुई थी।
प्रेम नहीं तो स्वर्ग नहीं।
शायद अतीत की थी यादें।
यादें थीं यह स्वप्न नहीं।
नींद खूली तो कुछ विश्वे के।
घर में था मैं पडा हुआ।
मैं मेरी पत्नी दो बच्चे।
बाहर पेपर वाला खड़ा हुआ।
शब्दार्थ।। कुठार =काठ या लकडी के बडे संदूक।। तोमडे =बीज के लिए संभाली लौकी का खोल।। कमोले =लघु घडे।
।। खोया पाया से।। विजय प्रकाश रतूडी।
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