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मंगलवार, 4 अगस्त 2015

दुनिया-सब्जीमंडी

         दुनिया-सब्जीमंडी

ये दुनिया सब्जीमंडी है और हम सब सब्जी भाजी है
बासी  है  कोई  सूख  रही ,तो कोई  एकदम  ताज़ी है
कोई बिन पेंदे का बेंगन ,जो एक जगह ना टिकता है
वह जाता भुना आग में है और उसका भुड़ता बनता है
है कांटेदार कोई कटहल ,लसलसी,चिपचिपी है भीतर
तो किसी खेत की मूली है, कोई ,उजली,दुबली  सुन्दर
है कोई हरी हरी मिरची  चरपरी,तेज,तीखी तीखी
मुंह जलता ,बड़े प्रेम से पर ,सब खाते है ,करते सी सी
कोई पत्ता  गोभी जैसी ,है जिसकी थाह बड़ी मुश्किल
हर परत दर परत पत्ते है,अंदर ना मिल पाता है दिल
कोई जमीन से जुडी हुई,  सीधी सादी और   मामूली 
वो हरदम काटी जाती है ,जैसे कटते गाजर,मूली
है कोई मटर ,छिलके   छूटे  ,दाने दाने है हो जाती 
कट कोई प्याज सी आँखों में ,आंसू भरती पर मनभाती 
कितने ही भरे विटामिन हो,हो स्वाद भले ही वो कितनी
बस कट जाना और पक जाना,सब्जी की नियति है इतनी
कोई  कद्दू सी गोलमोल ,कोई तरोई सी  है कमसिन  
 तो कोई आलू के जैसी ,है काम न चलता जिसके बिन
जिसके संग मिलने जुलने में ,हर सब्जी रहती राजी है
ये दुनिया सब्जी मंडी है ,और हम सब सब्जी भाजी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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