एक होटल के रूम की आत्म गाथा
मै होटल का रूम ,भाग्य पर हूँ मुस्काता
मुझ मे रहने रोज़ मुसाफिर नूतन आता
थके हुये और पस्त यात्री है जब आते
मुझे देख कर ,मन मे बड़ी शांति पाते
नर्म,गुदगुदे बिस्तर पर जब पड़ते आकर
मै खुश होता,उनकी सारी थकन मिटा कर
मेरा बाथरूम ,हर लेता ,उनकी पीड़ा
जब वो टब मे बैठ किया करते जल क्रीडा
मुझ मे आकर ,आ जाती है नई जवानी
कितने ही अधेड़ जोड़े होते तूफानी
अपनी किस्मत पर उस दिन इतराता थोड़ा
हनीमून पर ,आता नया विवाहित जोड़ा
रात रात भर ,वो जगते,मै भी जगता हूँ
सुबह देखना,बिखरा,थका हुआ लगता हूँ
कभी कभी कुछ खूसट बूढ़े भी आजाते
खाँस खाँस कर,खुद भी जगते,मुझे जगाते
तरह तरह के लोग कई अपने,बेगाने
आते है मेरे संग मे कुछ रात बिताने
देश देश के लोग ,सभी की अपनी भाषा
मै खुश होता ,उनको दे आराम ,जरा सा
बाकी तो सब ,ये दुनिया है आनी,जानी
मै होटल का रूम,मेरी है यही कहानी
मदन मोहन बहेती 'घोटू'
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