आज सुबह समाचार पत्र पर अचानक से नजर पड़ी,
"वेलेनटाईन डे की तैयारी" शीर्षक कुछ अटपटा सा लगा।
हृदय मे कुछ दुविधा उठी,
मन ही मन मै सोचने लगा|
वेलेनटाईन डे के नाम पर ये क्या हो रहा है?
कई फायदा उठा रहे है कईयों का कारोबार चल रहा है।
एक खाश दिन को प्रमोत्सव पता नहीं किसने चुना,
प्रेम अब हृदय से निकल के बाजार मे आ गया है।
व्यापारीकरण के दौर मे प्यार भी व्यापार हो गया है।
ग्रिटिंग्स कार्ड, बेहतरीन गिफ्ट्स, यहाँ तक की फूलो के भी दाम है
हर चीज अब खाश है बस प्रेम ही आम है।
कुछ इसे मनाने की जिद मे अड़ते रहते है,
कुछ संस्कृति के नाम पे इसे रोकने को लड़ते रहते है।
पर सोचने वाली बात है कि सच्चा प्रेम है कहाँ पे?
पार्क में घुमना, होटल में खाना प्रेम का ही क्या रूप है?
भेड़ों की चाल में शामिल हो जाना ही जिन्दगी है तो,
ऐसी जिन्दगी में सोचने की जगह ही कहाँ है?
अगर सच्चा प्रेम है तो क्या उसका कोई खाश दिन भी होता है?
हर दिन क्या प्रेम के नाम नहीं हो सकता?
क्या मानव होकर हर दिन हम मानव से प्यार नहीं कर सकते?
हर दिन किसी से या देश से प्यार का इजहार नहीं कर सकते?
जो भी हो पर मष्तिष्क की स्थिति यथावत ही है,
मतिभ्रम है और ना थोड़ी सी राहत ही है।
पर किसी न किसी को तो सोचना ही होगा,
आगे आके गलतियों को रोकना ही होगा|
मष्तिष्क मे आया कि जेहन मे ये ना ही आता तो अच्छा था।
बहुत खूब भाई ||
जवाब देंहटाएंye pyaar ka din nahi smaan bechne ka din hai,phool aur uphaar bechne walon ka din hai ye to
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत व्याख्या दोस्त....
जवाब देंहटाएंनेता- कुत्ता और वेश्या (भाग-2)
Right
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